पेड़ों की छांव तले रचना पाठ की 114 वीं राष्ट्रीय गोष्ठी सम्पन्न
“भारती जय भारती के गीत गाते झूमते, आज उन रण बांकुरों की शान में अपना नमन, देश की खातिर मिटे जो फांसियों को चूमते”
पृथ्वी में जल की बात हो या आदमियत की नीयत की स्तर गिर रहा है ...।
“कहते हैं सच जिंदा है तो जिंदा हैं हम मैं सोचता हूँ कि भ्रम जिंदा है तो जिंदा हैं हम”
गाजियाबाद। पेड़ों की छांव तले रचना पाठ की 114 वीं राष्ट्रीय गोष्ठी में देश समाज सरोकार से ओतप्रोत रचनाएं पढ़ी गयी। आभासी मंच पर आयोजित यह रचना पाठ का 114 वां संस्करण अभिनय – कला – पत्रकारिता से जुड़े वरिष्ठ रचनाकारों का साहित्य संगमन रहा। मुख्य अतिथि के रूप में टीवी पेनलिस्ट तथा फिल्मकार उमेश कुमार के साथ विशिष्ट अतिथि के रूप में अभिनेत्री कवि प्रतिभा सुमन्न, न्यूज चैनल के वरिष्ठ पत्रकार रंगकर्मी पशुपति नाथ शर्मा रहे। अन्य रचनाकारों में फिल्म लेखक डॉ सुशील कुमार कुसमाकर, कवयित्री नेहा वैद्य तथा पूनम कुमारी रहीं। संयोजन व संचालन अवधेश सिंह ने किया।
मां भारती को सादर स्मरण नमन करते हुए तिरंगे की थीम पर आयोजित गोष्ठी में कवयित्री गीतकार नेहा वैद नें आजादी के दिवानों के उत्सर्ग को याद करते गीत पढ़ा “भारती जय भारती के गीत गाते झूमते आज उन रण बांकुरों की शान में अपना नमन, देश की खातिर मिटे जो फांसियों को चूमते..”।
इसी क्रम में नैसर्गिक प्रेम पर समर्पित एक और गीत पढ़ कर वाह वही लूटी – “उंगलियों के पोर खुरदुरे हुए फूल काढते हुए रुमाल पर कितनी बार हाथ में सुई चुभी एक फूल तब खिला रुमाल पर..”।
फिल्म लेखक कहानीकार कवि सुशील कुसुमाकर ने “जैसे दिखते हैं वैसे नहीं” कविता शीर्षक से सामयिक अनुभूतियों को प्रकट किया – “वे बहुत तेजी से दौड़ रहे हैं चल नहीं रहे, वे बहुत जल्दी मे हैं , आगे बढ़े बुलंदी छूए , तरक्कियाँ करें। फर्क नहीं पड़ता किसी को लेकिन फर्क पड़ता है उन कंधों को जिनके ऊपर सवार हो वे दौड़ रहे हैं”।
फिल्म अभिनेत्री कवयित्री प्रतिभा सुमन्न ने वर्तमान व्यवस्था पर अंकुश का समर्थन करते “बुलडोजर” शीर्षक से कविता पढ़ी– “बुलडोजर घर बनने और बुलडोजर बनाने में क्या समय एकसा लगता होगा। कतरा कतरा जोड कर बनता है घर और बुलडोजर। एक मां और एक बाप की दिन रात की मेहनत से बनता है घर और बुलडोजर। मां के गेहेने बेच कर ,बाबा की तनखा आधि लेकर बच्चों का पेट काट कर बनता है घर और बुलडोजर।
पत्रकार कवि रंगकर्मी पशुपति शर्मा ने ज्वलंत मुद्दों पर समाज की चुप्पी को अपनी कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया । “मौन” शीर्षक से पढ़ा – “मौन शुक्रिया तुम्हारा तुम न होते तो क्या जिंदा रह पाते हम, तुम न होते तो क्या जिंदा रह पाता जिंदा रहने का एहसास, मौन शुक्रिया तुम्हारा मेरे हमारे मौन में तुम जिंदा हो, दुनिया के मौन में तुम जिंदा हो। मौन शुक्रिया तुम्हारा क्यों मौन में अब भी जिंदा है मौन”। दूसरी कविता “भ्रम” शीर्षक से पढ़ी – “कहते हैं सच जिंदा है तो जिंदा हैं हम, मै सोचता हूं कि भ्रम जिंदा है तो जिंदा हैं हम”
संयोजन – संचालन कर रहे अवधेश सिंह ने “जल स्तर” शीर्षक से आदमीयत की वर्तमान फितरत को बयां करती कविता पढ़ी। “जल स्तर, स्तर गिर रहा है। पृथ्वी में जल की बात हो या आदमियत की नीयत की स्तर गिर रहा है। कारण कुछ भी हो सुविधा की, मृगमरीचिका के पीछे तेजी से भाग रहा उपभोक्ता वाद जंगल को काटते नये नये विकास के मंसूबों को पालते, गहराई से जड़े जमाते दुनिया के तमाम अपवाद आंसू नहीं झरते कितना भी हो गम हालात कुछ भी रहें नहीं होती आंखे नम क्यों की सूख रहा है। आखों का पानी जैसे सूख रहें है जल स्रोत क्यों न होगी अगली सदी में जल के लिए जंग क्यों कि स्तर गिर रहा है। पृथ्वी में जल की बात हो या आदमियत की नीयत की स्तर गिर रहा है”।
मुख्य अतिथि के रूप में शिरकत कर रहे दूरदर्शन सीरियल निर्माता वयोवृद्ध वरिष्ठ कवि उमेश कुमार ने हताशा को कविता में व्यक्त किया – “मेरी सलामती का हाल पूछने ज़िंदगी तब आई है। जब वक़्त का क़र्ज़ अदा करना है मुझे, पैग़ाम-ए-तक़ाज़ा लेकर मौत आई है। रुख़सत करो मुझे मेरे यार, मेरे प्यारे, संभालो यह महफ़िल, ये चौबारे मेरे मन के छाले गरम रेत में पक गये हैं। माफ़ करना मुझे, मेरे शब्द थक गये हैं”
कवयित्री पूनम कुमारी ने समाज के गिर रहे आचरण पर पढ़ा – “मासूम दिल मायूस है, छली दुनिया देख मानव का घिनौना वेश, हंसती मानवता देख,मासूम दिल स्तब्ध है, व्यथित है, व्याकुल है, पतन समाज की नैतिकता देख”।
नियत समय से प्रारम्भ हुई गोष्ठी को आन लाइन पाठकों और दर्शकों का समर्थन मिला देर शाम तक गोष्ठी में सारस काव्य पाठ हुआ ।