मौत के बाद सहानुभूति से फायदा उठाने की मंशा, मुस्लिम मतदाताओं को जोड़ने की नई रणनीति
मुख्तार अंसारी की मौत का प्रभाव आने वाले चुनावों में पड़ना निश्चित है। राजनीतिक पार्टियां अपने हिसाब से इस मुद्दे को भुनाने की कोशिशें में जुट गई हैं।
माफिया मुख्तार अंसारी की मौत के बाद विभिन्न दल बयानबाजी में जुटे हैं। ये बयान अनायास नहीं हैं बल्कि इसके सियासी निहितार्थ हैं। मुख्तार परिवार की पकड़ सिर्फ मुसलमानों तक सीमित नहीं थी बल्कि हिंदू आबादी का एक वर्ग भी समर्थक रहा है। अब उनके जाने के बाद पैदा हुई सहानुभूति के जरिए सियासी जमीं को उर्वर बनाने की कोशिश शुरू हो गई है ताकि वोटों की फसल आसानी से काटी जा सके। हालांकि ध्रुवीकरण की वजह से इसके नुकसान की भी आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। इस पूरे घटनाक्रम से पूर्वांचल ज्यादा प्रभावित है।
मुख्तार की मौत के बाद सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बिना मुख्तार का नाम लिए जेल में मौत पर सवाल खड़े किए। उन्होंने कहा कि हर हाल में किसी के जीवन की रक्षा करना सरकार का दायित्व होता है। लेकिन, सपा के ही राष्ट्रीय महासचिव शिवपाल सिंह यादव ने मुख्तार का नाम लेने में कोई संकोच नहीं किया। न सिर्फ उन्होंने मुख्तार का नाम लिया बल्कि सम्मान के साथ पूर्व विधायक व श्री लगाते हुए भावपूर्ण श्रद्धांजलि व्यक्त की। कांग्रेस महासचिव अनिल यादव ने सांस्थानिक हत्या का आरोप लगाया। एक दिन की चुप्पी के बाद प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री और सुभासपा के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने मुख्तार अंसारी को गरीबों का मसीहा करार दिया और स्वामी प्रसाद मौर्य ने मुख्तार के घर जाकर शोक संवेदना जताने का एलान किया है। एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने मुख्तार को जेल के अंदर मारने और जांच कराने की मांग कर सियासी हलचल पैदा कर दी। मुख्तार के पक्ष में एक के बाद एक आ रहे बयान के सियासी मायने हैं।
कई जिलों में है राजनीतिक पकड़
दरअसल माफिया मुख्तार और उनके परिवार की सियासी पकड़ भले मऊ, गाजीपुर, आजमगढ़ सहित पूर्वांचल के कुछ जिलों तक रही हो, लेकिन यह परिवार पूरे प्रदेश से किसी न किसी रूप से जुड़ा रहा। मुख्तार के दादा कांग्रेस के अध्यक्ष थे और पिता कम्युनिट के नेता थे। मुख्तार के भाई अफजाल अंसारी ने सियासी पारी की शुरुआत कम्युनिस्ट पार्टी से की। अफजाल ने मुसलमानों की रहनुमाई करने के साथ ही पिछड़े, दलितों को भी एकजुट किया।
सियासी नब्ज पर नजर रखने वालों का तर्क है कि उत्तर प्रदेश की सियासत में सपा के एमवाई और बसपा की सोशल इंजीनियरिंग से पहले ही इस परिवार ने नब्ज को पकड़ा और अपनी सोशल इंजीनियरिंग के जरिए जनता के बीच पैठ बनाई। यही वजह है कि गाजीपुर में सिर्फ 10 फीसदी मुस्लिम आबादी होने के बाद भी अफजाल पहले विधायक और फिर सांसद चुने जाते रहे हैं। यही हाल मऊ में मुख्तार का भी रहा है। दूसरी अहम बात यह भी है कि मुख्तार की मौत न्यायिक हिरासत में हुई है। मुख्तार परिवार बार-बार कानून की दुहाई देता रहा है और अब भी दे रहा है तो इसके भी सियासी मायने हैं। इससे मुख्तार परिवार के प्रति सहानुभूति बढ़ी है। उसके समर्थकों के बीच यह संदेश गया है कि मुख्तार के साथ अन्याय हुआ है।
वरिष्ठ पत्रकार नागेंद्र कहते हैं कि मुख्तार निश्चित तौर पर माफिया था, उसकी करतूत को जायज नहीं ठहराया जा सकता है, लेकिन उसका परिवार पिछड़ों, दलितों और स्थानीय सवर्णों के कुछ आबादी के बीच अपनी मजबूत पकड़ रखता है। मुसलमानों के बीच सरकार के खिलाफ संदेश गया है। इसे विभिन्न दल अपने लिए माकूल मान रहे हैं। यही वजह है कि वे भी अब मुख्तार के पक्ष में खड़े हैं, जो कल तक सियासी तौर पर विरोध करते रहे हैं।