1857 की क्रांति का इतिहास: मेरठ से हुआ था स्वतंत्रता दिवस का ऐलान, भारत माता के जयकारों से गूंज उठा शहर
1857 में न सिर्फ पहली क्रांति का बिगुल मेरठ से फूंका गया था, बल्कि स्वतंत्रता दिवस का उद्घोष भी मेरठ की धरती से ही किया गया था. दरअसल, 23 से 26 नवंबर 1946 तक विक्टोरिया पार्क में कांग्रेस का 54वां अधिवेशन आयोजित किया गया था, जिसमें सभी कांग्रेस नेता शामिल हुए थे.पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विक्टोरिया पार्क से घोषणा की थी कि अब अगला सत्र स्वतंत्र भारत में होगा. बाद में दिल्ली से स्वतंत्रता की घोषणा कर दी गई। जश्न-ए-आजादी का जश्न मनाने के लिए पूरा देश उमड़ पड़ा.वरिष्ठ इतिहासकार केडी शर्मा बताते हैं कि जैसे ही दिल्ली से आजादी की घोषणा हुई तो मेरठ भी तिरंगे से पट गया। सबके हाथों में तिरंगा और चेहरे पर आजादी की खुशी थी। क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या जवान सभी आजादी का जश्न मना रहे थे। 15 अगस्त 1947 को मेरठ में दो जगहों पर स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। सबसे पहले सभी लोग गांधी आश्रम में एकत्र हुए, इसके बाद शाम को पीएल शर्मा मेमोरियल में कार्यक्रम आयोजित किया गया। मेरठ के लोग देर रात तक आजादी की खुशियां मनाते रहे।
शहर भारत माता के जयकारों से गूंज उठा
मेरठ में लोगों ने आजादी की खुशी में झांकियां और जुलूस निकाले। भारत माता, वंदे मातरम के जयघोष से गूंज उठा मेरठ। 14 अगस्त की रात को जोरदार बारिश हुई. 15 अगस्त की सुबह धूप खिली हुई थी.
फूल ऐसे बिछे हुए थे, मानो कोई त्यौहार हो
केडी शर्मा कहते हैं कि सदर और लालकुर्ती जैसे बाजारों में फूल खिले हुए हैं। घरों पर फूलों की मालाएँ और पत्तों की लड़ियाँ इस प्रकार लटकायी गयीं मानो कोई उत्सव हो।
काली पलटन में अंग्रेजी दल में सन्नाटा छा गया
आजादी की पहली सुबह से ही छावनी के पूरे इलाके में जश्न शुरू हो गया था, वहीं दूसरी ओर काली पलटन में ब्रिटिश टुकड़ी में सन्नाटा था.
शहीद स्मारक में लगे शिलालेख पर 85 शहीदों के नाम अंकित हैं।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मेरठ में अपने प्राण न्यौछावर करने वाले 85 सैनिकों के नाम यहां शहीद स्मारक के शिलालेख पर अंकित हैं। सफेद संगमरमर से बना यह स्मारक 30 मीटर ऊंचा है और इसे 1857 में शहीद हुए भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए बनाया गया था। 1857 की क्रान्ति में कोतवाल धन सिंह का महत्वपूर्ण योगदान था। क्रान्ति के समय अंग्रेज अधिकारियों के आदेश के बावजूद उन्होंने क्रान्तिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही नहीं की। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें फाँसी की सज़ा सुनाई।