वर्षों से हमारा सबसे जरूरी मुद्दा सामाजिक-धार्मिक मामलों का ही है, आर्थिक मामले क्यों कोई विशेष मायने नहीं रखते

Update: 2024-09-24 09:12 GMT

आजकल मिलावट और वक़्फ़ के मुद्दों की चर्चा बहुत है और धार्मिक संस्थान से जुड़े होने के कारण जोरों पर है और यही क्यों अब तो लगता है कि रोजमर्रा में वर्षों से हमारा सबसे जरूरी मुद्दा सामाजिक-धार्मिक मामलों का ही है, आर्थिक मामले शायद कोई विशेष मायने नहीं रखते हैं। सही बात तो यही है कि फ्रांस की क्रांति के बारे में जब पढ़ा तो लगा था कि क्रांतियां तो रोटी, बराबरी का हक, बराबरी के मौके, बोलने की आज़ादी आदि के लिए होती हैं, अमेरिका की क्रांति के किस्से भी कुछ ऐसे ही लगे थे। अपने देश में क्रांति का कारण जब चर्बी के कारतूस पढ़ा तो समझ आया कि हम लोगों के लिए ये मुद्दे शायद उन मुद्दों से ज्यादा जरूरी थे लेकिन फिर और सोचा तो लगा कि मूल मुद्दे तो आर्थिक और अपने हकों की लड़ाई के ही रहे होंगे। हां अलबत्ता चिंगारी ऐसे मुद्दों से भड़की होगी। रूस की क्रांति ने बताया कि आर्थिक मुद्दों पर भी जनता की भावनाओं का लाभ उठा कर लगभग एक सदी तक की राजनीति साधी जा सकती है। मतलब यही लगा कि विचार और विचारधारा कैसी भी बताई जाए साध्य एक ही निकलता है।

अब जब पिछले कुछ दशकों से महसूस हो रहा था कि नहीं हमारे यानी कि जनसाधारण के लिए मुख्य मुद्दे भावनात्मक और सामाजिक-धार्मिक ही रहे हैं लेकिन अब मिलावट और वक़्फ़ वाले मुद्दों से लगता है कि दरअसल जिन मुद्दों को सामाजिक-धार्मिक मानते-जानते हुए हम संवेदनशील हो जाते हैं और हमारी भावनाएं आहत हो जाती हैं उनके पीछे के कारण भी अधिकांशतः आर्थिक होते हैं और उनसे भी राजनीति ही सधती है।

लेखक अतुल चतुर्वेदी भारत से कांच हस्तशिल्प उत्पादों के पहले निर्माता निर्यातक एवं प्रमुख उद्योगपति हैं। प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता, इतिहास, संस्कृति, सामाजिक मुद्दों, सार्वजनिक नीतियों पर लेखन के लिए जाने जाते हैं। 

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