138 साल कानूनी दांव-पेच में उलझा रहा जन्मस्थान, सरयू से जानिए मुक्ति संघर्ष की दास्तां
फैजाबाद के उप जिला न्यायालय में दाखिल याचिका में रघुबरदास ने कहा था कि उन्होंने 1883 में जाड़ा, बरसात और धूप से बचाव के लिए चबूतरे पर मंदिर निर्णाण शुरू किया था। पर, मस्जिद पक्ष की आपत्ति पर डिप्टी कमिश्नर फैजाबाद ने निर्माण रोक दिया था।
सरयू के किनारे वह वर्ष 1885 का दौर था। स्वतंत्रा संग्राम तेज हो चुका था। प्रभु राम के जन्मस्थान की मुक्ति की लड़ाई में कानूनी दांव-पेच शुरू हो गए थे। मस्जिद पक्ष के दावे के बीच महंत रघुबरदास ने श्रीरामजन्मभूमि पर मंदिर का दावा कर दिया।
फैजाबाद के उप जिला न्यायालय में दाखिल याचिका में रघुबरदास ने कहा था कि उन्होंने 1883 में जाड़ा, बरसात और धूप से बचाव के लिए चबूतरे पर मंदिर निर्णाण शुरू किया था। पर, मस्जिद पक्ष की आपत्ति पर डिप्टी कमिश्नर फैजाबाद ने निर्माण रोक दिया था। दास ने दावे के साथ एक नक्शा भी दाखिल किया था। इसमें बताया गया था कि मंदिर निर्माण से दूसरे पक्ष के अधिकारों में कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।
फैजाबाद के उप-न्यायाधीश (सब जज) हरिकिशन ने अमीन गोपाल सहाय को कोर्ट कमिश्नर नियुक्त कर पूरे परिसर का नक्शा तैयार करने को कहा। उन्होंने जो नक्शा तैयार किया वह रघुबरदास के दावे के साथ दाखिल नक्शे की तरह था। इसमें पता चला कि संबंधित स्थान का भीतरी अहाता और निर्मित हिस्सा मस्जिद के पैरोकारों के कब्जे में है। बाहरी अहाता और चबूतरा और सीता रसोई का हिस्सा रघुबरदास अर्थात मंदिर के पैरोकारों के पक्ष में है। मस्जिद पक्ष के तत्कालीन मुतवल्ली मो. असगर ने रघुबरदास के दावे का विरोध किया, पर कोर्ट में दाखिल नक्शा को गलत साबित नहीं कर पाए।
उप न्यायाधीश ने भी संबंधित स्थल के निरीक्षण के बाद निर्णय में माना कि जिस चबूतरे पर पूजा हो रही है, वहां किसी देवता के चरण उभरे हुए हैं। चबूतरे के ऊपर ही दूसरे चबूतरे पर ठाकुरजी की पूजा हो रही है। इससे संबंधित स्थान पर हिंदुओं के स्वामित्व की बात साबित होती है। पर, मंदिर बनाने की इजाजत, इसलिए नहीं दी जा सकती क्योंकि मस्जिद व मंदिर जाने का एक ही गलियारा होने से विवाद बढ़ेगा।
जिला जज ने भी जताई बेबसी
फैसले के विरोध में रघुबरदास ने जिला जज की अदालत में अपील की। पुरातत्वविद् इतिहासकार स्व. ठाकुर प्रसाद वर्मा एवं स्व. स्वराज्य प्रकाश गुप्त की श्रीराम जन्मभूमि पुरातात्विक साक्ष्य पुस्तक से पता चलता है कि तत्कालीन जिला जज कर्नल एफईए चामियर ने भी पूरे परिसर का निरीक्षण किया। निरीक्षण के बाद 1886 में दिए फैसले में स्वीकार किया कि हिंदुओं की पवित्र मानी जाने वाली भूमि पर मस्जिद का निर्माण किया गया। पर, घटना लगभग 365 वर्ष पुरानी है। जिसे ठीक करने के लिए बहुत देरी हो चुकी है। ऐसी स्थिति में सभी पक्षों को यथास्थिति में ही रखना उचित है। किसी भी नए बदलाव से अव्यवस्था ही खड़ी होगी। उम्मीद थी कि शायद खून-खराबे का दौर रुक जाए, पर अभी बहुत कुछ देखना बाकी था।