हमारे देश के सरकारी और प्राइवेट अस्पताल;एक अनुभव और विचार. अतुल चतुर्वेदी

पिछले कुछ दिनों में कुछ परिवारीजनों-रिश्तेदारों की स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के कारण मुझको अलग-अलग कई अस्पतालों में जाना पड़ा।इनमें से अधिकांश अस्पताल प्राइवेट थे और कुछ सरकारी भी। इस दौरान हुए अनुभवों से मेरे मन में कुछ प्रश्न उठे और कुछ बातें मैं सोचने पर मजबूर हो गया। मुझको लगा कि इन बातों को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से आप लोगों से भी शेयर करूँ।

Update: 2023-06-07 06:55 GMT

मैं गुरुग्राम,दिल्ली या नोएडा के किसी भी बड़े प्राइवेट अस्पताल में गया तो मरीज के प्रति चिंता तो घरवालों और रिश्तेदारों को होती ही है किंतु इन प्राइवेट अस्पतालों में जाकर/घुसते में आपको अन्य किसी किस्म के भय की अनुभूति न के बराबर होती है।आपको गंदगी देखने को नहीं मिलेगी, बड़े से अहाते या बीच के स्थान में विजिटर्स के बैठने को अच्छा साफ-सुथरा स्थान दिखेगा, भीड़ दिखेगी लेकिन बहुत अव्यवस्थित कुछ नहीं प्रतीत होगा।शौचालय साफ-सुथरे मिलेंगे,चाय आदि पीनी हो तो डाइनिंग एरिया भी साफ-सुथरा दिखता है।जहाँ तक डॉक्टरों का सवाल है तो इन प्राइवेट अस्पतालों में आपको नामचीन और कुशल डॉक्टर काफी मिलेंगे जिनमें से बहुत से एम्स आदि जैसे प्रसिद्ध सरकारी संस्थानों में से काम करके निकले होंगे;मतलब डॉक्टरों की कुशलता पर कोई प्रश्न नहीं।

जहाँ तक नर्सिंग स्टाफ का सवाल है वो प्राइवेट अस्पतालों में बहुत प्रोफेशनल ही देखने को मिलता है।अब सवाल इन प्राइवेट अस्पतालों की समस्याओं का; सबसे पहली बात तो यह है कि लगभग सारे प्राइवेट अस्पताल अकल्पनीय रूप से महंगे होते हैं और चंद अति सम्पन्न वर्ग के लोगों को छोड़ दें तो इन अस्पतालों में बिना बीमे के किसी का इलाज कराना नामुमकिन है और शायद पश्चिमीकरण के दौर की यह एक बहुत बड़ी समस्या और विडंबना है।दूसरी बात इन अस्पतालों में मरीजों और उनके तीमारदारों को अस्पताल के एडमिनिस्ट्रेशन से सदैव यही आशंका और अंदेशा रहता हैं कि कहीं बिल बढ़ाने के चक्कर में ये लोग वो टैस्ट और इलाज भी न कर दें जिनकी आवश्यकता नहीं है-वेंटिलेटर सम्बंधित चिंताएं भी कुछ इसी किस्म की होती हैं।पूरी बात का मतलब यह है कि डॉक्टरों की काबिलियत और नर्सिंग स्टाफ की कार्यकुशलता बेहतरीन होते हुए भी मैनेजमेंट और एडमिन स्टाफ की नीयत पर संदेह के कारण इन अस्पतालों के मरीज और उनके तीमारदार सदैव परेशान और सशंकित भी रहते हैं।

अब बात सरकारी अस्पतालों की;सरकारी अस्पताल जैसे एम्स आदि-मतलब सर्वश्रेष्ठ डॉक्टर और उनकी बेहतरीन कार्यकुशलता तथा जिनकी नीयत में कहीं खोट नहीं-इलाज में कहीं बेईमानी की आशंका नहीं।लेकिन इसके साथ ही साथ वार्डों के बाहर बेतरतीब भीड़,बरामदों में बैठे-लेटे-खड़े तीमारदार, गंदगी,बहुत गंदे शौचालय जिनसे कई बार जुगुप्सा का भाव जगता है,परिसर में घूमते बंदर,आवारा कुत्ते,दौड़ते चूहे और रेंगते कॉकरोच। असंवेदनशील और गैर-जिम्मेदार नर्सिंग स्टाफ के कई उदाहरण भी मिल जाएंगे।

पार्किंग न जाने कितनी दूर और कुछ संस्थानों में अगर वहाँ से पैदल निकलते में वहाँ फैली गंदगी में से आप बिना उबकाई आये निकल आएं तो आपको अपनी दृष्टि तथा घ्राण शक्ति की भी जाँच करानी चाहिए।लिफ्टों में कुछेक अक्सर खराब ही मिलेंगी, बिल्डिंग में अनेक स्थानों पर सीलन भी दिखेगी,अंदर जहाँ गम्भीर बीमारियों के मरीज भर्ती हैं कई बार उन वार्डों के एक्ज़ॉस्ट फैन्स आदि की हवा बरामदों में वहीं निकलती मिलेगी जहाँ मरीजों के बेबस तीमारदार खड़े रहते हैं और उनके इस हवा से संक्रमित होने से इनकार नहीं किया जा सकता है।मेरा मानना है कि एम्स का इलाज विश्व में कहीं से भी तुलना कीजिये सर्वश्रेष्ठ की श्रेणी में ही आएगा जहाँ तक डॉक्टरों की कार्यकुशलता तथा उपकरणों का सवाल है किंतु कुल मिलाकर मरीजों और उनके तीमारदारों को वहाँ की अव्यवस्था तथा अफरातफरी के से माहौल से काफी दिक्कत होती ही है यह भी उतना ही बड़ा सत्य है।

आप किसी भी विषय में बात करिए आपको लाल फीताशाही हर विषय में झांकती मिलेगी।

मुझको मालूम है कि आप में से कुछ लोग कहेंगे कि भाई सरकारी अस्पतालों में इलाज की सुविधा तो मुफ्त है क्योंकि पहले मैंने भी यही सोचा था लेकिन फिर मैंने कुछ आंकड़े देखे तो लगा कि दरअसल बात कुछ फर्क है,जैसा हम समझते हैं उस को एक और दृष्टि से भी देखना सोचना चाहिए।एम्स,दिल्ली का साल 2022-2023 का अनुमानित बजट 4190 करोड़ रुपये है (अन्य कोई ग्रांट हों तो वो अतिरिक्त हैं) और साल में एम्स दिल्ली में करीब 16 से 17 लाख मरीज इलाज हेतु आते हैं यानी कि एम्स दिल्ली में ही प्रति मरीज सरकार लगभग 24-25 हजार रुपया औसतन खर्च करती है और यह रकम आती जनता से ही है,टैक्स के रूप में मतलब असलियत में अस्पताल को तो पैसे मिल ही रहे हैं,सीधे मरीजों से नहीं तो सरकार से।यहाँ इस बात और ध्यान देना भी जरूरी है कि सन 2009 में 1250 बेड का सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल मेदांता 1200 करोड़ रुपये की लागत में बना था।

कहने का आशय है कि इन प्राइवेट अस्पतालों में मरीजों से सीधे-सीधे जो अनाप-शनाप रकम वसूली जाती है वो मरीजों का दम निकालती है लेकिन सरकारी अस्पतालों में बजट के रूप में भी बहुत बड़ी रकम ही खर्च होती है और वो भी किसी न किसी रूप में जनता से ही वसूली जाती है और मान लीजिये कि सरकारी अस्पतालों में इलाज मुफ्त भी है फिर भी वहाँ के मैनेजमेंट की लापरवाही भी चिंतनीय है जिसके परिणामस्वरूप वहाँ बंदर,आवारा कुत्ते,चूहे और कॉकरोच का निर्द्वन्द विचरण किसी भी तरीके से जस्टिफाई नहीं किया जा सकता।

मेरा आज यह लेख लिखने का उद्देश्य यही है कि देश के पॉलिसी मेकर्स को इस विषय की ओर ध्यान देना चाहिए कि कुछ ऐसा करें कि हमारे एम्स और अन्य प्रसिद्ध सरकारी अस्पतालों की इस किस्म की खामियां दूर हो सकें और साथ ही साथ नामचीन प्राइवेट अस्पतालों के अति महंगे अनावश्यक बिलों पर लगाम लगाने का कोई मैकेनिज़्म भी बनाया जा सके।

अतुल चतुर्वेदी

उद्योगपति, निर्यातक, इतिहासकार, लेखक, ब्लॉगर, समाजसेवी

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