आदिपुरुष- क्या हमारे धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक नायक के चरित्र से खिलवाड़ की कौशिश है?
इधर कुछेक दिन से मीडिया और सोशल मीडिया में फ़िल्म "आदिपुरुष" के संवाद और उन संवादों से जुड़े विवादों की चर्चा आम है। मैंने मीडिया में इन संवादों के लेखक श्री मनोज मुन्तशिर का बयान भी देखा जो कहता है कि उन्होंने सारे संवाद बहुत सोच-समझ कर लिखे हैं। उनका कहना यह भी है कि रामायण कथा तो लोग अलग-अलग भाषाओं में और बोलियों में बोलते-सुनते-सुनाते आये हैं हाँलाँकि मुझको फिर भी संशय है कि किसी ने भी-कभी भी हनुमान जी जैसे पात्रों को ऐसी भाषा बोलते सुना-सुनाया होगा। उनकी बात के अनुसार तो उद्देश्य अधिकाधिक लोगों तक इस बात को पहुँचाने का ही है अर्थात कथ्य का महत्व है, कैसे कहा-कैसे बोला यह गौड़ है।
मैंने अभी तक यद्यपि यह फ़िल्म देखी नहीं है किंतु इसके डायलॉग्स की चर्चाओं से मेरा मन इस विषय में सोचने को मजबूर हो गया।
अभी तक मैंने श्री राम कथा को न जाने कितने लेखकों के लिखे को पढ़ कर,सुन कर, टीवी सीरियलों और फिल्मों में देख कर तथा रोजमर्रा में घर पर भी बड़ों से सुनकर जितना जाना उसमें एक बात तो निश्चित जानी कि इस कथानक के सभी प्रमुख पात्र और खास तौर से हनुमान जी बहुत विद्वान और सोच-समझ कर बोलने वाले बताए गए हैं।जब आप किसी दैवीय,पौराणिक,महान या पारिवारिक पात्र या बुजुर्ग के चरित्र के विषय में पढ़ते,सुनते या देखते हैं या किसी व्यक्ति को ही प्रत्यक्ष सुनते, देखते हैं तो उनकी भाव-भंगिमा, बोली आदि से उनके विषय में एक धारणा बनाते हैं और यह धारणा इनमें से किसी भी चीज में परिवर्तन से कुछ की कुछ भी हो सकती है।
ये सही है कि कवि या लेखक को सदैव यह अधिकार है कि वह अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करके अपने चरित्रों को अपनी कल्पना के अनुरूप गढ़ सके,ढाल सके और बुलवा भी सके किंतु विचारणीय बात यह है कि क्या हमारी यह स्वंतन्त्रता हमको सिर्फ कॉमर्शियल कारण से एक धार्मिक या पौराणिक या दैवीय चरित्र से उनके अब तक की स्थापित इमेज के विपरीत आचरण करवा सकती है या इस किस्म डायलॉग बुलवा सकती है???
विद्वता और अपनी बात को रखने के विषय में जब हम हनुमान जी की चर्चा करें तो गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री राम चरित मानस के किष्किंधा कांड में हम देखते हैं कि जंगल में घूमते दो बलशाली-रूपवान पुरुषों यानी भगवान श्री रामचन्द्र जी और लक्ष्मण जी को देखकर जब सुग्रीव सशंकित और भयभीत होते हैं तो वह हनुमान जी को उनकी असलियत का पता लगाने को भेजते हैं। हनुमान जी ब्राह्मण वेश में जाकर मस्तक नवाकर उनसे पूछते हैं:-
"विप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ ।
माथ नाइ पूछत अस भयऊ ।।
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा।
छत्री रूप फिरहु बन धीरा ।।"
यहाँ गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमान जी से कितनी सभ्य भाषा बुलवाई है जबकि अभी हनुमान जी को उन दोनों युवकों का परिचय मालूम भी नहीं है।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में भी हनुमान जी राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को प्रणाम करके उनका परिचय पूछते हैं:-
"ततश्च हनुमान वाचा श् लक्षण्या सुमनोज्ञया।
विनितवदुपागम्य राघवौ प्रणिपत्य च।।
आबभाषे च तौ वीरौ यथावत प्रशशंस च।
सम्पूज्य विधिवद वीरौ हनुमान वानरोत्तम:।।
उवाच कामतो वाक्यं मृदु सत्यपराक्रमौ।
राजर्षिदेवप्रतिमौ तापसौ संशितव्रतौ ।।
तदनन्तर हनुमान ने विनीत भाव से उन दोनों रघुवंशी वीरों के पास जाकर उन्हें प्रणाम कर मन को अत्यंत प्रिय लगने वाली मधुर वाणी में उनके साथ वार्तालाप आरम्भ किया। वानर शिरोमणि हनुमान ने पहले तो उन दोनों वीरों की यथोचित प्रशंसा की फिर उनका पूजन (आदर) करके स्वछंद रूप से मधुर वाणी में कहा- वीरो! आप दोनों सत्यपराक्रमी,राजर्षियों और देवताओं के समान प्रभावशाली, तपस्वी तथा कठोर व्रत का पालन करने वाले जान पड़ते हैं।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण,
किष्किंधा कांड, तृतीय सर्ग, श्लोक 3,4,5
अब आगे चलकर उस खास चर्चा पर आते हैं जब हनुमान जी लंका पहुँच गए हैं और अशोक वाटिका वाली घटना के बाद वो बंदी बना कर रावण के सामने ले जाये जाते हैं और फिर लंका दहन की घटना भी होती है।
फ़िल्म आदिपुरुष का डायलॉग कहता है कि:-
"कपड़ा तेरे बाप का!
तेल तेरे बाप का!
जलेगी भी तेरे बाप की!
अब भले ही फ़िल्म में हनुमान जी मेघनाद या इंद्रजीत से यह बात कहते हों लेकिन हनुमान जी की जो भाषा सदियों से लोग सुनकर उनके जिस चरित्र की कल्पना करते हैं उस चरित्र पर यह भाषा मेल नहीं खाती और जैसा हनुमान जी ने कहा है कि वो दूत बन कर आये हैं तो किसी भी डिप्लोमैट पर भी यह भाषा सूट नहीं करती क्योंकि राजदूत और राजनयिक की विशेषता तो कठोर से कठोर बात भी शालीन भाषा में कहने की होती है और यह बात सदैव सही है देश-काल कुछ भी हो।
जरा सोचिए श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के अनुसार यही हनुमान जी इस लंका दहन के कुछ पहले ही रावण को अपना परिचय कितनी शालीनता से दे रहे हैं:-
"अहं सुग्रीवसन्देशादिह प्राप्तस्त्वांतिके।
राक्षसेश हरीशस्त्वां भ्राता कुशलमब्रवीत ।।"
अर्थात राक्षसराज ! मैं सुग्रीव का संदेश लेकर यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ। वानरराज सुग्रीव तुम्हारे भाई हैं। इसी नाते उन्होंने तुम्हारा कुशल-समाचार पूछा है।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण,सुंदर कांड,एकपंचाश: सर्ग:,श्लोक संख्या 2
आदियरुष फ़िल्म के संवादों के विषय में कुछ लोग इसमें अपनी बात को प्रस्तुत करने की-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देंगे और यह भी कहेंगे कि बात को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने हेतु ऐसी भाषा का सहारा लिया जाता है तो मेरा मानना यह है कि साहित्य, मीडिया, फ़िल्म इन सबका रोल एवं उद्देश्य सिर्फ कॉमर्शियल ही नहीं होता है अपितु समाज की नई जेनरेशन को सही रास्ता दिखाना भी इनकी जिम्मेदारी होती है। आप लोग खुद सोचिए कि आप क्या चाहते हैं कि आपका बच्चा 'तेरी लंका लगा दूंगा' जैसी भाषा बोले?
दूसरी बात यह भी है कि हम इन सांस्कृतिक-पौराणिक-ऐतिहासिक कथाओं-घटनाओं के माध्यम से आने वाली पीढ़ियों को बताते हैं कि हमारी संस्कृति क्या रही है और इसी से आगे भी हमारी संस्कृति चलती है तो यह तो सम्भव है नहीं कि हम ये कहें कि हमारी संस्कृति के नायकों की भाषा या बोली ऐसी थी…
दूसरी बात यह भी है कि फ़िल्म का कथानक और पात्र वो हैं जो हमारी धार्मिक, पौराणिक कथाओं, आस्था और विश्वास से जुड़े हैं, फ्रीडम ऑफ स्पीच के तहत आप उस घटनाक्रम का इंटरप्रिटेशन समयानुकूल या प्रश्नोत्तरानुकूल अपनी सोच से कर सकते हैं लेकिन कंटेम्प्रेरी या आम लोगों की भाषा के नाम पर उनकी भाषा को distort नहीं कर सकते-बिगाड़ नहीं सकते और हाँ मेरी समझ के हिसाब से आप भारत में पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण कहीं चले जाइये कुछेक हिस्सों को छोड़ कर यह टपोरी भाषा कहीं भी जन सामान्य में रोजमर्रा की भाषा के रूप में बहुप्रचलित नहीं है और जहाँ प्रचलित भी है वहाँ इस बोली का प्रयोग करने वाले भी यह ज्ञान और ध्यान रखते ही होंगे कि किस से बात करने में उस बोली का प्रयोग करते हुए भी कहना क्या है और कैसे कहना है।
भाषा और बोली का परिवर्तन एक ऐतिहासिक और भौगोलिक तथ्य है जिसको सब जानते और मानते हैं।हर समझदार व्यक्ति हर भाषा और बोली का सम्मान भी करता है जो करना भी चाहिए । आदि कवि वाल्मीकि ने जिस भाषा में राम कथा कही उसमें गोस्वामी तुलसीदास या कम्ब रामायण या रंगनाथ रामायण अथवा मलेशिया की रामकथा हिकायत सेरीराम हो या रामकियेन हो,
क़आनन्द रामायण हो या कृत्तिवासीय रामायण इनमें कही बात की बोली-भाषा अलग है अर्थात सबकी भाषा,भाषा विन्यास भिन्न है लेकिन भाव नहीं। सबके ही कथानक एक आदर्श सांस्कृतिक कथा बताते हैं और उसमें पात्रों की भूमिका के अनुरूप उनकी भाषा और बोली का भी ध्यान रखा गया है।
ये सारे ग्रंथ किसी एक व्यक्ति ने नहीं लिखे, एक भाषा या एक स्थान पर नहीं लिखे गए किंतु पात्रों की मर्यादा और गरिमा से किसी रचयिता ने खिलवाड़ नहीं किया क्योंकि बात एक स्थापित,स्वीकृत और आदर्श मर्यादायुक्त कथानक-इतिहास की थी।
आप बोलने को कोई भी भाषा-बोली का प्रयोग करिए किंतु उसका स्तर तो पात्रों के अनुरूप देखना ही होगा। एक बात यह भी सोचने की है कि हम सभी यह तो जानते-मानते ही हैं कि यह कथानक हमारे देश ही नहीं अपितु देश के बाहर भी बहुत से लोगों की आस्था से जुड़ा कथानक-इतिहास है और जब और कोई सभ्यता या विश्वास अपने ऐसे हीरोज की मर्यादा से खिलवाड़ टॉलरेट नहीं करता तो हमको अपनी संस्कृति और सभ्यता-विश्वास के हीरोज की मर्यादा का भी ध्यान रखना चाहिए।
हमारे साहित्य में फिर भी कम लेकिन फिल्मों में भाषा का स्तर बहुत गिरा है और अब OTT प्लैटफॉर्म्स के बाद तो खैर इनका भगवान ही मालिक है परंतु फिर भी समाज के एक बड़े तबके को ये सारे माध्यम प्रभावित तो करते ही हैं।अब बात ज्यादा चर्चा में इसलिए भी है कि जो लोग ऐसी भाषा आदि मनोरंजन या बोलने में पसंद करते भी हैं वो भी अपने दैवीय और पौराणिक पात्रों के मुख से ऐसी भाषा सुनना पसंद नहीं कर रहे हैं।
कहने का आशय यह है कि हर समाज,हर देश के कुछ हीरोज, कुछ महापुरुष होते हैं और उनकी एक छवि भी होती है। हाँ यह भी ठीक है कि हम सब को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता भी है तो अच्छी बात यह है कि हमारे देश की अधिकांश जनता इस बात को लेकर चौकन्नी भी है और उसको जब अपने पौराणिक चरित्रों के मुख से यह भाषा अच्छी नहीं लगी तो लोग इस बात पर अपना विरोध भी व्यक्त कर रहे हैं।
आखिर में एक बात और कहनी ज़रूरी है कि हमारे समाज के जितने भी हीरो या उनकी कहानियाँ किस्से होते हैं चाहे वो सामाजिक हों, धार्मिक हों, पौराणिक हों,ऐतिहासिक हों या परिवार के ही क्यों ना हों वो हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा होते हैं और यह हमारी, हमारे समाज की यानी कि हम सबकी जिम्मेदारी होती है कि अपनी आने वाली पीढ़ियों को हम अपनी संस्कृति की अमूल्य थाती अक्षुण्ण रूप से यथावत सौंपे क्योंकि एक तो उस से ही उनको मालूम होता है कि हमारी संस्कृति क्या और कैसी रही है और दूसरे उस जानकारी के आधार पर ही हमारी अगली पीढ़ी में उस संस्कृति का विकास-सम्प्रेषण और प्रवाह होता है।
मेरा मानना है कि हम में से कोई नहीं चाहेगा कि हमारी नौजवान पीढियां हमारे पौराणिक-ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-धार्मिक और सामाजिक नायकों को इस टपोरी भाषा में इसलिए बोलते देखे-जाने क्योंकि इस से उस फिल्म को बनाने वालों की कमाई कुछ ज्यादा हो जाएगी।
अतुल चतुर्वेदी
फिरोजाबाद