Atul Chaturvedi: देश की प्रगति का अर्थ नौजवानों का जॉब सीकर से जॉब गिवर बनना

Update: 2023-06-14 12:51 GMT

हमारे देश में काफी समय से इस बात की चर्चा रहती है कि हम सबसे नौजवान देश हैं,हमारे यहाँ युवाओं की जनसंख्या सबसे अधिक है आदि।हम ये चर्चा भी सुनते हैं कि हमारे देश में नए शिक्षण संस्थान हर प्रकार की शिक्षा के लिए खुल रहे हैं वो चाहे स्कूली शिक्षा हो, कॉलेज की शिक्षा हो अथवा व्यावसायिक शिक्षा हो। इन सारी बातों के बावजूद क्या हमारे युवा वास्तव में रोजगार पा रहे हैं? क्या वास्तव में हमारे शिक्षण संस्थान विश्व स्तरीय शिक्षा दे पा रहे हैं? क्या हम अपने युवाओं को उनके भविष्य हेतु समुचित और सही अवसर प्रदान कर पा रहे हैं? क्या वास्तव में हम अपने युवाओं के रूप में मौजूद अपने देश की सबसे बड़ी ताकत,एनर्जी और रिसोर्स का सदुपयोग कर पा रहे हैं? यदि आप निष्पक्ष होकर और ध्यान से सोचेंगे तो इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर मिलेगा और वो है "बिल्कुल नहीं"।

हमारे लिए ये सोचना आज जरूरी हो गया है कि आखिर वो क्या कारण हैं जिनसे हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं और इस प्रश्न में ही वो उत्तर भी छिपा है कि आखिर हमको क्या करना चाहिये।हम सभी जानते हैं कि किसी भी देश का भविष्य उसके युवाओं के भविष्य से जुड़ा होता है और इन दोनों चीजों को हम जुदा करके नहीं देख सकते हैं।

एक समय था जब हमारे देश में प्राचीन काल में आश्रम पद्धति से शिक्षा दी जाती थी। इसमें शिष्य गुरुकुल जाते थे अपने गुरुओं से भौतिक, आर्थिक, प्रशासनिक, वैज्ञानिक, खगोलविद्या, चिकित्सा, गणित, दार्शनिक, ज्योतिष,आध्यात्मिक और अनेकों किस्म के शोध यानी कि जिसकी जैसी काबिलियत और रुचि हो वैसी शिक्षा लेते थे।जो शिक्षक होते थे वो पढ़ाने के साथ ही साथ खुद भी अपने गुरुओं से पढ़ते भी थे और इसी प्रकार क्रमबद्ध रूप से यह पढ़ाई चलती थी।गुरुकुल में पढ़कर बाहर निकल कर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में यह लोग अपना योगदान देते थे।बाद में हमारे देश में नालंदा और तक्षशिला जैसे शिक्षण संस्थान भी बने।

महत्वपूर्ण बात यह है कि उस देश-काल और परिस्थिति के अनुसार समाज और राज्य को जैसे लोग चाहिए थे उंसके अनुरूप ही शिक्षा प्रणाली कार्यरत थी। यह बात निःसंदेह कही जा सकती है कि उस समय की हमारी शिक्षा प्रणाली विश्व स्तरीय थी क्योंकि आस पास के अनेकों देशों से विद्यार्थियों के इन संस्थानों में पढ़ने आने के किस्से सर्वविदित हैं।

प्राचीन से 17वीं सदी तक के मध्य काल में भारत को विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में माना जाता था। आंकड़े देखे तो लगता है कि विश्व के की कुल सम्पति का एक तिहाई से एक चौथाई भाग पहले मुगल और फिर मराठा साम्राज्य के पास था लेकिन बाद में समय ने ऐसी करवट ली कि विश्व आर्थिकी में हमारी हैसियत कम होती चली गयी।

मध्यकाल और उसके बाद में हमारी शिक्षा प्रणाली में कुछ क्षेत्रों गिरावट आई स्पष्ट प्रतीत होती है क्योंकि पढ़ाई में वैज्ञानिक दृष्टि का अभाव झलकने लगता दिखता है हाँलाँकि वास्तुकला,ज्योतिष, चिकित्सा,गणित आदि में दूसरी संस्कृतियों का प्रभाव भी आने लगा लेकिन फिर भी आर्थिक दृष्टि से या अंग्रेजी शब्द का प्रयोग करें तो GDP के हिसाब से जैसा मैंने ऊपर लिखा है हमारे देश का विश्व व्यापार में योगदान अभी अच्छा ही था किंतु इस समय की जरूरत के हिसाब से हमारा नौजवान तबका शिक्षा में पिछड़ रहा था।

इसका स्पष्ट उदाहरण है कि यह वही समय है जब यूरोप में पिछड़ापन तेजी से दूर हो रहा था वहाँ एक तरफ औद्योगिक क्रांति पनपना शुरू हो रही थी तो दूसरी तरफ विभिन्न किस्म के दार्शनिक विचार और लोकतंत्र आदि के विचार मूर्त रूप ले रहे थे।यहाँ ध्यान रखना होगा कि गणतंत्र आदि का विचार हमारे देश में बहुत पुराना था किंतु उपयोगी और वांछित शिक्षा पर समुचित ध्यान न देने का ही परिणाम था कि भारतीय उपमहाद्वीप, इजिप्ट, वर्तमान सीरिया आदि इलाकों के लोग अब वैश्विक स्तर पर पिछड़ते जा रहे थे।कहने का आशय यह है कि एक जमाने में भारतीय उपमहाद्वीप, असीरिया, मेसोपोटामिया आदि क्षेत्रों की सभ्यताओं का जो विश्व में डंका बजता था वहाँ के लोग अब पतन का शिकार हो चले थे और इसके परिणाम यहाँ की आबादी ने आगे आने वाले समय में भुगते जिसका इतिहास सब जानते हैं।

भारत में जब अंग्रेजों का शासन हुआ तो उन्होंने हमारी शिक्षा प्रणाली में ऐसी तब्दीलियां की जो उनके हितों के अनुकूल थीं। यहाँ यह कहना पूरे तौर पर सही नहीं लगता कि उस शिक्षा प्रणाली से हमको सिर्फ नुकसान ही हुआ लेकिन इतना जरूर है कि अब जो शिक्षा और शासन प्रणाली थी उसका मुख्य उद्देश्य शासक वर्ग का हित साधन था न कि आम लोगों का।इस शिक्षा प्रणाली में हमारे यहाँ इलाहाबाद,कलकत्ता,बॉम्बे,मद्रास जैसे विश्विद्यालय बने और इनसे उस समय की जरूरत के हिसाब से एक से एक अच्छे लोग पढ़ कर निकले भी और समाज में अपना योगदान भी दिया।

भारत के स्वतंत्र होने के बाद नए देश के निर्माण में आवश्यकता थी काबिल और दूरदर्शी नेतृत्व की,समझदार नौकरशाहों की,इस्पात के कारखाने,बड़े-बड़े बांध बनाने हेतु, अंतरिक्ष अनुसंधान हेतु, परमाणु के क्षेत्र में विकास हेतु, अस्पतालों हेतु, फसलों और दुग्ध उत्पादों आदि का उत्पादन बढ़ाने हेतु इंजीनियरों,वैज्ञानिकों और अनुसंधान कर्ताओं की जिनकी आपूर्ति ये विश्विद्यालय,IIT,IIM और मेडिकल संस्थान करने लगे थे।

समय के साथ कुछ ऐसा हुआ है कि हम इस मांग और आपूर्ति का बैलेंस रखने में विफल से होते प्रतीत होने लगे हैं।हमारे युवाओं की अधिकतर तैयारी सरकारी नौकरियों की ओर होती दिखती है जबकि वहाँ जगह बहुत कम है। जिस संख्या में हमारी युवा जनसंख्या है उस के अनुपात में हमारे पास स्तरीय शिक्षण संस्थान नहीं बन पाए हैं।जब आप हाईवेज़ पर चलते हैं तो आपको लगभग हर जगह किस्म-किस्म के शिक्षण संस्थान कुकरमुत्ते से उगे दिखेंगे किंतु उनमें बहुतायत ऐसे संस्थानों की है जिनका वास्तविक स्तर वैसा नहीं है जैसा होना चाहिए और इसका खामियाजा महंगी फीस के रूप में नौजवान विद्यार्थी के घरवालों को और समुचित-अपेक्षित कैरियर न बन पाने के रूप में उस विद्यार्थी को और वास्तविक रूप में समाज और देश को भुगतना पड़ता है।

आज हमारे समाज और देश को नौकरशाहों, नेताओं,क्लर्कों से अधिक जरूरत है ऐसे वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं की जो ऊर्जा,जल,पर्यावरण,अंतरिक्ष,खाद्यान्न आदि के क्षेत्रों में कार्य करें और इन समस्याओं से लोगों को निजात दिलाएं।हमको ज़रूरत है ऐसे एंटरप्रिन्योर-उद्यमी लोगों की जो आज इन क्षेत्रों में काम करके ऐसा माहौल और अवसर पैदा करें कि हमारे नौजवानों की बड़ी संख्या जॉब सीकर से जॉब गिवर में परिवर्तित होने लगे।

यदि हम वास्तव में चाहते हैं कि हमारे देश का सारी दुनिया में केवल एक बड़े बाज़ार के रूप में नहीं अपितु मानवता को विकास के नए रास्ते दिखाने वाले सही अर्थों में आर्थिक और अन्य क्षेत्रों में मजबूत देश के पुराने अवतार में तो हमको,पूरे समाज को और देश के नीति-निर्माताओं - पॉलिसी मेकर्स को इस दिशा में गम्भीर रूप से न सिर्फ सोचना होगा अपितु इस दिशा में सक्रिय और सकारात्मक कदम भी उठाने होंगे अन्यथा हम इतिहास बदलते रह जाएंगे किंतु नया ऊर्ध्वगामी प्रगतिशील इतिहास और नौजवानों का नया अच्छा भविष्य नहीं बना पाएंगे। अपने देश और देश के नौजवानों के उज्ज्वल भविष्य हेतु बहुत जरूरी है कि हमारी न सिर्फ शिक्षा प्रणाली अपितु हम लोगों की सोच भी इस दिशा में सक्रिय रूप से काम करे और यदि हमने ऐसा कर दिखाया तो वो दिन दूर नहीं होगा जब विश्वके GDP में फिर से हमारा योगदान प्रमुख और बहुत बड़ा हो हो सकेगा।

अतुल चतुर्वेदी

उद्योगपति, निर्यातक, इतिहासकार, लेखक, ब्लॉगर, समाजसेवी

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