पितृ पक्ष के अनुरूप हमारा आचरण और परम्परा

Update: 2024-09-23 09:14 GMT

आजकल पितृ पक्ष चल रहा है। सनातन कैलेंडर के अनुसार क्वांर अथवा आश्विन मास के प्रथम 15 दिन यानी कृष्ण पक्ष को पितृ पक्ष माना जाता है और इन पन्द्रह दिनों में और सोलहवां दिन भाद्रपद मास की पूर्णिमा तिथि को जोड़ कर पूरे साल में जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु हुयी हो पितृ पक्ष की उस तिथि को पूर्वज का श्राद्ध करने का विधान माना गया है।

वैसे तो बौद्ध और जैन धर्म में भी पुनर्जन्म की अवधारणा है किंतु उस पर चर्चा फिर कभी करेंगे अभी बात पितृ पक्ष की और सनातन संस्कृति-धर्म की, हिंदू धर्म की, वैदिक संस्कृति की। पहले बात धर्मग्रंथों की तो मत्स्य पुराण, यम स्मृति, धर्म सिंधु आदि में पितरों को संतुष्ट करने सम्बंधित विशद चर्चा हैं। श्री राम कथा में भी भगवान श्री रामचन्द्र जी द्वारा गोदावरी तट पर पिता दशरथ और जटायु को जलांजलि देने का उल्लेख है।

पितरों को संतुष्ट करने हेतु पिंड दान तथा पितृ पक्ष में श्राद्ध और तर्पण का विधान बताया गया है। तर्पण और श्राद्ध में पितरों की तीन पीढ़ियों यानी कि माता-पिता, पितामह और प्रपितामह की इन तीन पीढ़ियों का श्राद्ध करना और तर्पण करना चाहिए ऐसा शास्त्रोक्त विचार बताया गया है। यह तर्पण पितरों का काले तिल, गंगाजल और कुशा युक्त जल से करने का कहा गया है जबकि भीष्म पितामह एवं देव तर्पण के लिए काले तिल के स्थान पर जौ से करने का विधान है।

गीता के अध्याय 9 के 25वें श्लोक के अनुसार पितर पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं,देव पूजने वाले देवों को और परमात्मा को पूजने वाले परमात्मा को।

आर्यसमाज मृतक श्राद्ध का समर्थन नहीं करता अपितु उनके विचार से जैसा श्री वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि धर्म -पथ पर चलने वाला बड़ा भाई, पिता और विद्या देने वाला ये तीनों पितर जानने चाहिए।

ज्येष्ठो भ्राता पिता वापि यश्च विद्यां प्रयच्छति!

त्रयस्ते पितरो ज्ञेया धामे च पथि वर्तिनः!! (वाल्मीकि रामायण :-१८-१३)

वैसे तो दुनिया के लगभग सभी धर्मों में अपने पुरखों को किसी न किसी प्रकार याद करने का, उनका सम्मान करने का विधान दिखता है लेकिन सनातन धर्म में चूंकि नास्तिक दर्शन और विचारधारा का भी उतना ही सम्मान और महत्व है इसलिए यहां इन विधानों को नकारने के भी उतने ही जोरदार तर्क मिलते रहे हैं।

हमारे पूर्वज यानी कि मेरे परिवार के बुजुर्ग आर्य समाज आंदोलन चलने पर उससे भी काफी सक्रिय रूप से जुड़े रहे तो अब हम लोगों की स्थिति यह है कि हम सनातन कर्मकांडों को विरल रूप में मानते हैं लेकिन प्रोग्रेसिव विचार रखते हैं और अंधविश्वास और पाखंडों से अपनी समझ के अनुसार बचते भी हैं लेकिन साथ ही साथ पारिवारिक परम्पराओं में हर पीढ़ी में अपेक्षित संशोधन करते हुए उनका पालन भी करते हैं। जैसे हमारे यहां श्राद्ध होता है।

मेरे बाबा को मैंने तर्पण करते नहीं देखा लेकिन बाद के कुछ वर्षों में अपने पापा को तर्पण करते देखा और इसलिए मैं भी करता हूं। मेरा कर्म की फिलोसोफी तदनुरूप भाग्य और पुनर्जन्म में विश्वास है हालांकि मुझको नहीं पता कि तर्पण का क्या प्रभाव होता है लेकिन एक तो हम सब इस वजह से इन 15 दिनों में अपने पुरखों को याद करके उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं यह अपनेआप में बहुत संतोषप्रद है दूसरे पितृ दोष की अवधारणा और श्राद्ध दरअसल सभी को बताते हैं कि अपने माता-पिता और बुजुर्गों के प्रति ही नहीं अपितु सभी लोगों के प्रति हमको सम्मान रखना और उनका सम्मान करना चाहिए। यदि आप अपने माता-पिता, जीवित बुजुर्गों का, पूरे समाज का सम्मान नहीं कर रहे और उनको सुख नहीं दे रहे तो पितृ पक्ष की बात आपके लिए बेमानी है और तर्पण तथा श्राद्ध सिर्फ एक पाखंड। मुझको लगता है कि इन सब प्रावधानों के बहुत से सामाजिक कारण हैं, समाज को बड़ों के सम्मान के प्रति ट्रेन तो करना ही है साथ ही जरूरतमंद लोगों को भोजन कराना और उनकी सहायता करना वो भी उनके सम्मान को बिना ठेस पहुंचाये, यह भी कभी एक प्रमुख उद्देश्य रहा होगा।इसी प्रकार से गौ ग्रास या कौए को भोजन डालना दरअसल एक ऐसी सामाजिक विचारधारा को बताता है जिसमें इस बहाने से मानवजन्य द्वारा अन्य प्राणियों के लिए भी भोजन की व्यवस्था की जाती थी। जहां तक सवाल काले तिल और जौ का है तो मुझको लगता है कि जब और पृथ्वी के जिस क्षेत्र में लोगों ने इस विषय में सबसे पहले सोचना शुरू किया उनके लिए उस समय तिल और जौ ही प्रमुख अन्न रहे होंगे, वैसे भी तो तिल को सृष्टि में पहला अन्न माना गया है।

अंत में इस विषय में मेरा मानना यह है कि हम कर्मकांड करें या न करें, तर्पण और श्राद्ध तथा इन कर्मकांडों में निहित भावनाओं को जरूर समझें और यदि उनके अनुरूप आचरण करें तो न केवल हमारे पितर प्रसन्न होंगे अपितु हमारे जीवित बुजुर्ग भी सुखी होंगे तथा समाज भी बेहतर बनेगा।

यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि प्रोग्रेसिव होने का अर्थ समस्त परम्पराओं का खंडन करना नहीं है और परम्पराओं के पालन का अर्थ पाखंडों और अंधविश्वासों में जकड़े रहना नहीं है। वैसे भी इस भारत भूमि में हम सदियों से न सिर्फ विभिन्न धर्म वाले अपितु सनातन हिंदू धर्म के भीतर ही विभिन्न विचारधारा और दर्शन वाले लोग साथ-साथ शांति और सहिष्णुता से रहते आये हैं और सामाजिक रूप से एक दूसरे की और एक दूसरे के धर्मों की अच्छी बातें सीख कर आगे बढ़ते आये हैं और सनातन धर्म की तो विशेषता ही अविरल रूप से अपने को स्वच्छ करते हुए, सबको समाहित करते हुए, सहिष्णु रहते हुए बहते जाना है, बढ़ते जाना है।

लेखक अतुल चतुर्वेदी भारत से कांच हस्तशिल्प उत्पादों के पहले निर्माता निर्यातक एवं प्रमुख उद्योगपति हैं। प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता, इतिहास, संस्कृति, सामाजिक मुद्दों, सार्वजनिक नीतियों पर लेखन के लिए जाने जाते हैं। 

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