इजिप्ट-काहिरा पैपिरस इंस्टिट्यूट में बिखरी उनकी सभ्यता और इतिहास
सिंदबाद ट्रैवल्स-18
उन चित्रों और उनकी संस्कृति के बारे में और पूछने पर कुछ बड़ी interesting बातों की जानकारी भी मिली। प्राचीन मिस्र में अनेक किस्म के देवी, देवताओं की पूजा होती थी और समय के साथ पूजे जाने वाले देवता भी बदलते रहे हैं। एक समय में तो फराओ अर्थात राजा को "होरस" का अवतार माना जाता था। होरस अथवा "रे" सूर्य का नाम था और "रे" अथवा सूर्य के प्रतिनिधि होने के कारण राजा स्वयं देवता माने जाते थे। मृत्यु के बाद राजा की पूजा पिरैमिड के सामने के मंदिर में होती थी। मजेदार बात ये थी कि मिस्र की जनता को सम्हालने के लिए चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में सिकंदर को भी अपने को "ऐमन रे" अथवा "रे" देवता अर्थात सूर्य का पुत्र घोषित करना पड़ा था। एक और देवी थीं जिनके सिर पर गाय के सींग दिखाए जाते थे इनका नाम "हाथोर" था और इनको या गाय देवी को पूजा जाता था। मैं सुन मिस्र के प्राचीन देवी देवताओं के बारे में रहा था और याद मुझको अपने देवी देवता और गौमाता आ रहे थे। बात इतने ही पर नहीं रुकी। एक समय में उनके यहां सभी देवताओं में प्रमुख देवता की अवधारणा हुई। इन देवता का नाम था "अमुन" ये देवताओं के देवता भी माने गए कुछ समय तक और जानते हैं इन देवता का स्वरूप क्या था? "अमुन" देवता का रंग नीला था कुछ ध्यान आ रहा है आपको? अच्छा चलिए आगे जानिए इन "अमुन" देव के सर पर hat में दो पंख भी लगे होते थे। बात इतनी ही नहीं है अभी भी इजिप्ट में "Opet festival" में "अमुन" उनकी पत्नी "अमौनेट या मुट" और देवता "खोंसू" (चंद्रमा) इन तीनों को एक रथ पर बैठा कर "करनेक" शहर के मंदिर से "लक्सर" शहर तक की रथ यात्रा निकलती है और इस रथ को वहां के लोग खींचते हैं। करनेक से लक्सर तक की दूरी बस चंद किलोमीटर की है।
आगे चल कर प्राचीन इजिप्ट में तीन देवता "अमुन", "रे" और "प्ताह" प्रमुख हो गए यानी कि "त्रिदेव" की अवधारणा।
उनसे ये सब बातें सुनते हुए मैं तो हतप्रभ था। बात वो लोग प्राचीन इजिप्ट की और वहां की परंपराओं और देवी देवताओं की बता रहे थे और मेरे मन में गौ माता, कलगी लगाए मोरमुकुट धारण किये भगवान श्रीकृष्ण, सूर्य देव, चंद्र देव, जगन्नाथ में श्री कृष्ण जी और भगवान बलभद्र और देवी सुभद्रा की रथ यात्रा घूम रही थी। जब उन्होंने आगे बताया कि बाद में अमुन देवताओं के भी पूज्य बने और निर्बल असहायों की पुकार सुनने वाले बने तो मुझको अपने यहां के दीनबंधु दुखहर्ता दीनानाथ श्री हरि विष्णु भी याद आये।
और हां यहां भी ये बातें लगभग 5 हजार वर्ष पुरानी हैं और अपने यहां महाभारत और भगवान श्री कृष्ण का काल क्या माना जाता है?
बस बात ये है कि यहां परंपरा के साथ साथ पिरैमिड और मूर्तियों आदि के रूप में एक स्थापित इतिहास मिल गया है और उस सांस्कृतिक विरासत का ये लोग गर्व से लाभ उठा रहे हैं जबकि हमारे यहां बहुत सी पुरातात्विक खोजें होनी शायद अभी बाकी हैं।
मैं ये भी सोच रहा था कि हमारे यहां भी तो भोजपत्र पर लिखने की परंपरा थी किन्तु इनकी भांति गोपनीय नहीं। क्योंकि हमारी संस्कृति में हमेशा भौतिकवाद से अध्यात्म को ज्यादा प्राथमिकता दी गयी है, व्यक्तिगत और व्यावसायिक स्वार्थों से सामाजिक हित और समाज कल्याण की सोच ज्यादा रही है तो हम लोग आखिर भोजपत्र के प्रयोग और उपयोग की विधि को आखिर गोपनीय कैसे रख सकते थे। लेकिन हां जहां तक मिस्र वासियों का सवाल है तो आज के आधुनिक युग में इन लोगों ने अपने प्राचीन Papyrus के ज्ञान का व्यवसायीकरण भी कर लिया है और उसके साथ ही अपनी संस्कृति का प्रचार भी कर रहे हैं और उस पर गर्व भी। मुझको पक्का नहीं मालूम लेकिन मेरे ख्याल से हमारे भारत में भोजपत्र बनाने और उस पर लिखी चीजें या प्राचीन चित्रों की बनाने की या प्राचीन ग्रंथों के अंश लिख कर दिखाने और उनका व्यावसायिक उपयोग करने की कोई संस्था/म्यूज़ियम शायद नहीं है जबकि यदि ऐसा हो तो हमारी प्राचीन गौरवशाली संस्कृति का प्रचार भी हो और लोगों के लिये रोजगार सृजन के अवसर भी हों।
ये बातें करते तथा सोचते सोचते और साथ ही साथ उस म्यूज़ियम को देखते में कॉफी भी आ गयी जो काफी अच्छी थी।
ये सारे पपीरोज बिक्री हेतु उपलब्ध थे,इनके साथ इनका गारंटी कार्ड भी मिलता है। ये पपीरोज काफी सुंदर और आकर्षक थे लेकिन महंगे बहुत थे। मैंने उन लोगों से कहा कि ये बाहर भी तो मिलते होंगे और सस्ते भी होंगे तो उन्होंने कहा कि बाहर की कोई गारंटी नहीं होती हो सकता है आपको पेपिरस के स्थान पर केले की बनी शीट को पपीरोज कह कर दे दें।पपीरोज का आकर्षण कुछ ऐसा था कि मन कह रहा था कि खरीद लो लेकिन कीमत ऐसी थी कि जेब कहती थी कि अभी बहुत लंबी यात्रा बाकी है इसलिए सोच समझ कर लेना। कुछ की कीमत तो सौ और कुछ की तो सैकड़ों डॉलर तक की थी। मिस्टर मैगदी का भी कहना यही था कि मिलता तो बाहर भी है लेकिन authentic लेना है तो यहां से ही लेना चाहिए बाहर की कोई गारंटी नहीं होती। मैंने जब कहा कि कीमत बहुत अधिक है तो मिस्टर मैगदी ने ये बात मुंह पर ही नहीं ली लेकिन फिर भी मैंने उन लोगों से खूब सौदेबाजी की और कीमत काफी कम करवाने में सफल रहा और कई पपीरोज खरीदे। हां ये बात सही है कि सन 1991 में जो पपीरोज खरीदे थे और लौट कर दिल्ली के लाजपत नगर मार्केट में फ्रेम करवाये उनकी आभा आज भी वैसी की वैसी ही है।लौट कर कुछ family, friends and relatives को मैंने ये पपीरोज भेंट भी किये थे। इन पपीरोज़ पर मिस्र की प्राचीन भाषा/लिपि में वो आपका नाम भी या कुछ और भी लिखवाना चाहें तो complimentary लिख देते हैं, मैंने भी लिखवाया था लेकिन लौट कर ये ध्यान नहीं रहा कि कौन से वाले पर क्या लिखा था और देखने पर अपना तो उसको समझना और पढ़ना नामुमकिन ही है।
कुल मिलाकर यहां यानी कि इस म्यूज़ियम में आकर मन अच्छा हुआ और मैं और मिस्टर मैगदी दोनों ही काफी खुश थे क्योंकि मेरा ज्ञान बढ़ा और एक नई चीज देखी उसके विषय में जानकारी प्राप्त की और वो वस्तु खरीदी भी तथा मिस्टर मैगदी की खुशी का कारण संभवतः वहां से उनको इस बिक्री/खरीद पर मिलने वाला कमीशन रहा होगा। खुशी की एक हल्की सी लहर उस टैक्सी वाले के चेहरे पर भी थी।
अब हम लोग उसी शानदार गाड़ी में बैठ कर फिर चल दिये काहिरा की सड़कों पर। अगले अंक में चर्चा है मिस्र देश के शहीद स्मारक और राष्ट्रपति अनवर सादात की हत्या की...
लेखक अतुल चतुर्वेदी भारत से कांच हस्तशिल्प उत्पादों के पहले निर्माता निर्यातक एवं प्रमुख उद्योगपति हैं। प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता, इतिहास, संस्कृति, सामाजिक मुद्दों, सार्वजनिक नीतियों पर लेखन के लिए जाने जाते हैं। तीन दशक से अधिक वैश्विक यात्राओं के साक्षी।