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दुनिया

मैडम तुसाद का वैक्स म्यूजियम

Tripada Dwivedi
9 Nov 2024 6:30 PM IST
मैडम तुसाद का वैक्स म्यूजियम
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सिंदबाद ट्रैवल्स-36

इंग्लैंड-लंदन

अब लंदन में आज का प्लान सबसे पहले मैडम तुसादस Madame Tussauds Wax Museum देखने का था। अर्ल्स कोर्ट स्टेशन से ट्यूब पकड़ कर और संभवतः कहीं एक स्थान पर बदल कर (नाम ठीक से याद नहीं) लगभग आधे पौने घंटे में मैं बेकर स्ट्रीट स्टेशन पर पहुंचा और वहां से बिल्कुल नजदीक ही Marylebone Road पर विश्व प्रसिद्ध मैडम तुसादस म्यूजियम पहुंच गया। ये विश्व प्रसिद्ध म्यूज़ियम है मोम के पुतलों का। इतिहास और विश्व की प्रसिद्ध हस्तियों के मोम के पुतले इस संग्रहालय में प्रदर्शित हैं।

इस संग्रहालय की स्थापना मैरी तुसाद ने 1836 में लंदन की बेकर स्ट्रीट पर की थी और 1883 में उनके नाती ने इसको पास में ही Marylebone Road पर स्थानांतरित किया। मैरी तुसाद का मूल नाम मैरी ग्रॉसहोल्ज Marie Grosholtz था। इनकी मां स्विट्ज़रलैंड के बर्न नामक स्थान पर Dr.Philipe Curtis के यहां काम करती थीं जो कि मोम की मूर्तियां बनाने में बहुत निपुण थे और इस क्षेत्र में उनका बहुत नाम भी था। इनके साथ रहते हुए मैरी ग्रॉसहोल्ज ने भी इस कला को सीखा और लगभग 17 वर्ष की उम्र में अपना पहला मोम का पुतला/मूर्ति बनाया और जानते हैं किसका? फ्रांस के उस समय के प्रसिद्ध दार्शनिक, लेखक, इतिहासकार और नागरिक स्वतंत्रता के बड़े पैरोकार वोल्टाइर Voltaire का। बाद में मैरी ने फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिक, enlightenment के प्रणेताओं में से एक प्रमुख व्यक्ति रूसो और अमेरिका की स्थापना करने वालों में प्रमुख रहे और प्रसिद्ध वैज्ञानिक, बिजली के आविष्कारक बेंजामिन फ्रेंकलिन की भी मोम की मूर्तियां बनायीं। मैरी ग्रॉसहोल्टज़ ने बाद में Francois Tussaud से विवाह किया और इसके बाद से उनको सारा विश्व Marie Tussaud या Madame Tussaud के नाम से जानता है। उनके विषय में एक बड़ी रोचक बात ये है कि वो French Revolution (1789) से बहुत सक्रिय रूप से जुड़ी रहीं थी, उनको तीन महीने के लगभग जेल भी काटनी पड़ी थी। वो फ्रेंच रिवोल्यूशन में मारे गए लोगों के शवों में से उनके कटे हुए सर खोजती थीं और फिर उनसे उनके मोम के मास्क बनाती थीं जो आंदोलन के झंडों के रूप में प्रयुक्त होते थे। मैडम तुसाद बाद में डॉक्टर कर्टिस के यहां से मिले और अपने बनाये मोम के पुतलों का पूरे यूरोप में घूम घूम कर प्रदर्शन करती थीं और अंततः उन्होंने लंदन में 1836 में बेकर स्ट्रीट पर अपना संग्रहालय खोला क्योंकि फ्रांस में नेपोलिएनिक युद्धों के कारण उनका वहां वापस जाना संभव न हो सका था। समय के साथ ये मोम के संग्रहालय अन्य स्थानों/देशों में भी खुले हैं, खुद मैडम तुसाद की बहन का एक वैक्स म्यूजियम पेरिस में है किंतु लंदन के मैडम तुसादस जैसी प्रसिद्धि अब तक किसी की नहीं है।

मैं अब मोम के पुतलों के लगभग 200 वर्ष पुराने विश्वप्रसिद्ध संग्रहालय Madame Tussauds के सामने खड़ा था, उसका काहिया हरे रंग का गोल गुम्बद सामने दिख रहा था और इस गुम्बद के कारण उस रोड की अन्य इमारतों से ये इमारत भिन्न भी प्रतीत हो रही थी। इस संग्रहालय में जाने के लिए पहले तो मैंने टिकट लिया जिसकी तबकी कीमत मुझको याद नहीं है, हांलांकि अब शायद 29 या 30 पाउंड है। म्यूज़ियम में अंदर घुसने को लंबी लाइन लगी हुई थी, ऐसा लगता था जैसे अपने देश के किसी बड़े शहर के किसी बड़े सिनेमा हॉल में घुस रहे हों। खैर लाइन में चलते चलते आखिर मैं उस संग्रहालय के अंदर पहुंच ही गया और घुसते ही लगा कि ये तो किसी दूसरी दुनिया में आ गया हूं। अंदर एक तरफ एक घेरे में यकबयक लगा कि जैसे सामने इंग्लैंड का शाही परिवार खड़ा हुआ है। महारानी एलिजाबेथ द्वितीय, उनके पति प्रिंस फिलिप, युवराज चार्ल्स और साथ ही उनकी बेतहाशा खूबसूरत पत्नी लेडी डायना भी थीं और उनके साथ ही शाही परिवार के अन्य राजकुमार एवं राजकुमारियां भी। यदि हमको मालूम न हो तो कोई कह नहीं सकता था कि ये साक्षात राजपरिवार न होकर उनके मोम के पुतले मात्र हैं। कुछ आगे बढ़ा तो द्वितीय विश्वयुद्ध में इंग्लैंड के प्रधानमंत्री सर विंस्टन चर्चिल खड़े हुए थे और उनके आगे उस समय की प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर नीली स्कर्टनुमा ड्रेस में खड़ी थीं। एक तरफ sleeping beauty का पुतला था तो दूसरी ओर रूस की रानी रहीं कैथरीन भी थीं और महारानी विक्टोरिया भी अपने सिंहासन पर आसीन थीं। विभिन्न कालखंडों में इंग्लैंड के राजा और रानी रहे न जाने कितने लोगों के पुतले थे वहां जैसे किंग एडवर्ड VII, रानी एलिज़ाबेथ 1, किंग हेनरी VIII, किंग जॉर्ज आदि आदि।

इस मोम के पुतलों के संग्रहालय में मनोरंजन की दुनिया से जुड़ी विश्व प्रसिद्ध हस्तियों के पुतले भी थे जैसे एक कोने में सर्वकालीन सर्वोत्कृष्ट कॉमेडियन चार्ली चैपलिन अपनी चिर परिचित मुद्रा में खड़े थे तो ब्रूस ली और जॉन ट्रेवोल्टा भी मौजूद थे। वॉल्ट डिज़्नी थे तो अल्फ्रेड हिचकॉक भी थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सारी दुनिया के विभिन्न कालों के विभिन्न क्षेत्रों के प्रसिद्ध लोग यहां एक छत के नीचे आकर इकट्ठे हो गए हैं। जरा सोचकर तो देखिए कि आप चर्चिल से मिलकर आगे बढ़े तो आपको हिटलर मिल गए अपनी कसी हुई वर्दी में अपनी अनोखी मूछों के साथ। बायीं तरफ बढ़े तो 12वीं शताब्दी के खलनायक विजेता चंगेज खान खड़े थे जैसे हिटलर से कह रहे हों कि हां तू ही मेरे जैसा निर्दयी हत्यारा हुआ इतनी शताब्दियों में।

यदि एक तरफ अमेरिका की राजनैतिक हस्तियां जैसे अब्राहम लिंकन, बेंजामिन फ्रेंकलिन, जॉर्ज वाशिंगटन, फ्रेंक्लिन रूजवेल्ट, जॉन एफ केनेडी, रीगन, उनकी पत्नी आदि राष्ट्रपति खड़े थे तो दूसरी ओर खड़े सद्दाम हुसैन भी उनको घूर रहे थे। फ्रांस के इतिहास प्रसिद्ध नेपोलियन थे तो जर्मनी का एकीकरण करने वाले महानायक बिस्मार्क भी थे।

राजनीति से हट कर साहित्य और कला के क्षेत्र की हस्तियों के तो कहने ही क्या थे। शेक्सपियर, लियोनार्डो दा विंसी, ऑस्कर वाइल्ड, सिगमंड फ्रायड जैसे लोग थे तो पाब्लो पिकासो और रॉबसपीएरे भी थे। ऐसी प्रसिद्ध हस्तियों के बीच, चाहे ये उनके मोम के पुतले ही थे किंतु थे बिल्कुल सजीव से लगते, उनके बीच खुद को खड़े पाना एक विचित्र सी अनुभूति दे रहा था। जरा सोचिए आपके सामने शेक्सपियर बैठे हुए हैं और कहीं अचानक कह उठें “you too Brutus” और सिगमंड फ्रायड उसकी विवेचना करने लगें या पाब्लो पिकासो कोई पेंटिंग बना रहे हों और तभी लियोनार्डो दा विंसी अपनी मोनालिसा बना रहे हों। जरा कल्पना करिए कि ये वो लोग थे जो कला, दर्शन और साहित्य के क्षेत्र के मील के पत्थर थे और उनकी सजीवप्राय: मूर्तियों के बीच हिंदुस्तान से आया मैं खड़ा था।

वहां कम्यूनिज्म के प्रणेता कार्ल मार्क्स और चीन के माओ त्से तुंग भी थे। ऐसा लगा कि मानो माओ कार्ल मार्क्स से कह रहे हों कि देखा दादा मार्क्स आपने तो विचारधारा ही दी लेकिन चीन में मैंने उसको अमली जामा पहना दिया।

एक तरफ इस्राइल की महिला प्रधान मंत्री रहीं गोल्डा मायर और उनके साथ मोशे दयान थे तो वहीं उनके बगल में ही फिलिस्तीन के नेता यासिर अराफात खड़े थे की जैसे कह रहे हों कि हमारी मांग पूरी करो। मिस्र के अनवर सादात, जॉर्डन के शाह हुसैन थे तो वहां ईरान के अयातुल्लाह खोमेनी भी मौजूद थे जो मानो बता रहे थे कि एक क्रांति फ्रांस में हुई थी तो एक ईरान में मैंने भी तो की तभी तो अंग्रेजों ने मुझको यहां स्थान दिया है। एक तरफ शांति के प्रतीक मार्टिन लूथर किंग थे तो वहीं आगे एक तरफ पोप भी मानो शांति का ही संदेश दे रहे थे। अगर इंडोनेशिया के युग पुरुष रहे पूर्व राष्ट्रपति सुकर्णो मौजूद थे तो तुर्की को आधुनिक राष्ट्र बनाने वाले मुस्तफा कमाल अतातुर्क यानी कमाल पाशा भी मौजूद थे। उपरोक्त ये सभी वो लोग थे जिन्होंने अपने अपने समय में अपने देश और दुनिया के इतिहास को अपने हिसाब से एक अलग दिशा दी और आज मैडम तुसाद के वैक्स म्यूज़ियम में असंख्य लोग इन्हीं हस्तियों के मोम के पुतले देखते हुए, उनके साथ फोटो खिंचाते हुए अपना मनोरंजन कर रहे थे।

मैडम तुसाद के संग्रहालय का आरंभ से ही एक प्रमुख आकर्षण था Chamber of horrors। इसमें पहुंच कर आपको भय, घृणा, वीभत्स, जुगुप्सा, अवसाद आदि सारे रसों/भावों का थोड़ी ही देर में अनुभव हो जाएगा। असल में मैडम तुसाद वो महिला थीं जिन्होंने 1789 की फ्रांस की क्रांति को न सिर्फ देखा था अपितु वो स्वयं उसका भाग रही थीं, उन्होंने उस क्रांति को जिया था। फ्रांस के राजा लुई XVI, रानी मैरी एन्टोनियेत, रॉबसपीएरे इन सबकी हत्या को उन्होंने होते हुए न सिर्फ देखा था अपितु उनके चेहरों के मोम के मास्क भी बनाये थे। तो इस चैंबर में इन हस्तियों के सर, लोगों की गर्दन गिलोटिन से काटने के दृश्य, मृत्युदंड के दृश्यों के विभिन्न पुतले और न जाने कितने दृश्य प्रदर्शित हैं और मानो हर मृत्यु और हत्या की अपनी एक कहानी है और यदि आप इतिहास के छात्र रहे हैं तो आपको वो काहानियां याद भी आती हैं और आप मानो सिहर उठते हैं। कुछ भूत प्रेतों जैसे दृश्य और पुतले भी थे किंतु मैं उनमें सिर्फ श्रीमान काउंट ड्रैकुला को ही भली भांति पहचानता था। सत्य तो ये है कि इस चैंबर को देख कर और उन किस्सों को सोच कर कहीं घृणा हुई तो कहीं मन बड़ा खराब हो गया। मानवता का यह वीभत्स रूप देखकर मन बड़ा खिन्न और व्यथित भी हो गया था।थोड़ी देर इस चैंबर को देख कर फिर मैं दूसरी तरफ चला आया।

इस संग्रहालय में सर्वकालीन प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर आइजैक न्यूटन थे तो आइंस्टीन भी।ऐसा लगा कि न्यूटन आइंस्टीन से पूछ रहे हैं कि क्या यहां घूमने वाले आपके (आइंस्टीन के) theory of relativity के सिद्धांत के अनुसार टाइम मशीन में बैठ कर यहां आ गए हैं और तभी विभिन्न कालखंड के लोगों से एक साथ रूबरू हो रहे हैं।

इस संग्रहालय में हमारे राष्ट्रपिता बापू की मोम की मूर्ति भी थी और हमारी प्रधान मंत्री रहीं श्रीमती इंदिरा गांधी की भी। अपने देश की हस्तियों को विश्व की सार्वकालिक हस्तियों के बीच देखकर गर्व की अनुभूति भी हुई और मन में बहुत प्रसन्नता भी हुई। ये भी बहुत खुशी की बात है कि अब जब 2017 में ये संस्मरण लिख रहा हूं तो अब तो मैडम तुसाद के संग्रहालय में बहुत सी भारतीय हस्तियों की मोम की प्रतिमाएं वहां की शोभा बढ़ाते हुए देश को गौरवान्वित कर रही हैं। असलियत ये भी है कि भारत की मशहूर हस्तियों की मोम की मूर्तियां लगाने से इस संग्रहालय के व्यापार में भी काफी वृद्धि हुई बताई जाती है तभी तो लगभग 200 वर्ष पुराने इस संग्रहालय में जिसमें 400 के लगभग मोम की मूर्तियां प्रदर्शित हैं और प्रतिवर्ष केवल 15 के लगभग नयी मूर्तियां लगाई जाती है और उनमें भी भारतीयों की संख्या बढ़ती ही दिखती है तो यद्यपि ये उनके लिए व्यापार की बात है लेकिन हम भारतीयों के लिए तो गर्व की बात है ही।

इस संग्रहालय के अंदर एक अलग ही दुनिया का अनुभव हो रहा था। वास्तव में उन मोम के पुतलों में यदि किसी चीज की कमी थी तो बस वो ‘जान’ की ही कमी थी बाकी तो वो बिल्कुल सजीव प्रतीत होते थे। कई सदियों का इतिहास और पात्र मानो बस सजीव हो उठने को तैयार ही खड़े थे लेकिन इस सब को देख कर ये भी आभास हुआ कि मनुष्य कितना भी काबिल हो जाये, उन्नति कर ले फिर भी कोई शक्ति ऐसी तो है ही जो हमारे जीवन मृत्यु को नियंत्रित करती है क्योंकि इतने सारे लोगों के लगभग परफेक्ट मोम के पुतले तो इंसान ने बना लिए किन्तु उनमें जान फूंकने की काबलियत नहीं आ पाई इसलिए वो पुतले बने ही खड़े हैं। इस प्रकार के कई विचार मन में आ रहे थे और यही सब सोचते हुए मैं इस स्वप्न की दुनिया से बाहर आ गया था हांलांकि ये भी सत्य है कि मेरा शरीर तो बाहर लंदन की सड़क पर आ गया था किंतु मस्तिष्क अभी भी उसी मायालोक में मानो विचर रहा था। अब दोपहर हो रही थी और मैं बढ़ रहा था इंग्लैंड की महारानी के निवास यानी बकिंघम पैलेस की तरफ।

अगले अंक में लंदन की कुछ और बातें होंगी...

लेखक अतुल चतुर्वेदी भारत से कांच हस्तशिल्प उत्पादों के पहले निर्माता निर्यातक एवं प्रमुख उद्योगपति हैं। प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता, इतिहास, संस्कृति, सामाजिक मुद्दों, सार्वजनिक नीतियों पर लेखन के लिए जाने जाते हैं। तीन दशक से अधिक वैश्विक यात्राओं के साक्षी।

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