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पश्चिमी उप्र में दंगल पुराना... दांव नया, जीत के लिए भाजपा ने झोंकी ताकत; रालोद को जोड़ा
हुक्के की गुड़गुड़ाहट के साथ चौपाल पर चर्चा हो या मेट्रो के सफर में चुनावी मंथन, राजनीति को अलग ही दिशा देने के लिए आतुर रहने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार नई चुनावी बयार चल रही है। सियासत का यह दंगल तो पुराना ही है, पर दांव नए चले जा रहे हैं। भाजपा ने पश्चिमी उप्र को बेहद गंभीरता से लेते हुए रालोद को साथ जोड़ लिया है। वहीं, विपक्ष भी भाजपा के चुनावी रथ को रोकने के लिए हर जुगत लगाने को आतुर दिख रहा है।
पश्चिमी उप्र जहां किसानों एवं गांवों का क्षेत्र है तो वहीं इसमें नोएडा और गाजियाबाद जैसी हाईटेक सिटी भी शामिल हैं। यही कारण है कि यहां का वोटर नई और पुरानी, दोनों ही विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करता है। प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से पश्चिमी यूपी की 27 सीटों पर चुनाव शुरुआती तीन चरणों में ही लगभग पूरा हो जाएगा। ऐसे में इन सीटों पर अपनी विजय पताका फहराने के लिए सभी दलों ने मशक्कत शुरू कर दी है।
भाजपा पश्चिमी यूपी की 27 सीटों पर अभी सबसे ज्यादा ध्यान लगाए हुए है। कारण साफ है। 2014 के लोकसभा चुनाव में इनमें से भाजपा ने 24 जीती थीं। पिछला चुनावा आया तो भाजपा को यहां झटका लगा। वह 27 में केवल 19 सीट ही जीत पाई। सपा और बसपा ने चार-चार सीटें बांट लीं। इसी का परिणाम है कि इस बार भाजपा ने इस क्षेत्र को तरजीह देते हुए यहां गठबंधन का दांव चला है।
नए समीकरण से है बड़ी उम्मीद
भाजपा का वोट बैंक इस समय बड़े वर्ग को साध रहा है। इनमें पिछड़ों की बड़ी संख्या है। सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश में 54 प्रतिशत से ज्यादा पिछड़े हैं। ऐसे कश्यप, प्रजापति, धींवर, कुम्हार, माली जैसी जातियों से भाजपा को मजबूती मिल रही है। इसके अलावा पश्चिमी उप्र की इन सीटों पर 18 प्रतिशत से अधिक जाट हैं। भाजपा का काडर वोटर वैश्य आदि भी साथ हैं। यही कारण है कि रालोद और भाजपा का यह नया गठबंधन पश्चिमी उप्र में कारगर साबित हो सकता है।
जाट प्रदेश अध्यक्ष की भी परीक्षा
वर्ष 2014 के चुनाव में एनडीए की पूर्ण बहुमत से सरकार बनी थी। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव की बात करें, तो यूपी में भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत के साथ 71 सीटें मिली थीं। उस वर्ष भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी थे। वहीं वर्ष 2019 के चुनाव में उप्र में भाजपा ने 62 सीटें जीतीं। उस समय पार्टी प्रदेश अध्यक्ष डॉ. महेंद्रनाथ पांडेय थे।
भाजपा ने भूपेंद्र चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर जाट वोटरों को साधने के लिए दांव चला। इस चुनाव में भूपेंद्र चौधरी की भी परीक्षा है कि वह भाजपा की उम्मीद पर कितना खरा उतरते हैं।
इस बार किसके साथ मुस्लिम
खास तौर से पश्चिमी उप्र में मुस्लिम वोटरों की संख्या किसी भी चुनाव का परिणाम बदलने का माद्दा रखती है। सपा, बसपा ने पिछले चुनाव में इसी समीकरण के जरिए आठ सीटें जीती थीं। वर्ष 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाटों और मुस्लिमों के बीच जो दूरी बढ़ी, वह रालोद के लगातार प्रयास से कम हुई थी। दोनों ही पक्षों ने इस दर्द को भुलाया और लगातार एक-दूसरे का हाथ थाम कर चल रहे थे। चाहे पिछले लोकसभा चुनाव का परिणाम हो या फिर विधानसभा का, मुस्लिमों ने खुले दिल से रालोद को वोट दिया।
रालोद के भाजपा के साथ जाते ही यह समीकरण एक झटके में बिखर गया। अब मुस्लिम किसका साथ देंगे, यह अहम सवाल है। यहां की सभी सीटों पर मुस्लिमों की संख्या तीन लाख से ज्यादा है। यहां दलित और मुस्लिम समीकरण सभी सीटों को प्रभावित करता रहा है।
नजदीकी मुकाबलों पर पैनी नजर
पश्चिमी उप्र से ही चुनावी बिगुल बज रहा है। तीन चरणों में पश्चिम की सभी सीटों पर चुनाव हो चुका होगा। ऐसे में यहां से निकला संदेश दूर तक जाएगा। पिछले चुनाव में नौ सीटों पर जीत का मार्जिन 25 हजार वोटों से भी कम था। कन्नौज, बदायूं, सुल्तानपुर और चंदौली के अलावा इनमें पश्चिमी यूपी की मेरठ, बागपत और मुजफ्फरनगर की सीट भी शामिल थी। भाजपा के सामने जहां इस बार इन सीटों को ज्यादा वोटों के अंतर से जीतने की चुनौती है, तो विपक्ष चाहेगा कि इस अंतर को कम करते हुए बाजी मार ली जाए।
चंद्रशेखर की नगीना से तैयारी
आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद नगीना से अपनी ही पार्टी से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। विधानसभा चुनाव में वह सपा-रालोद के गठबंधन के साथ थे। दलितों में इनका प्रभाव है। ऐसे में पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में असर पड़ेगा।
किन-किन सीटों पर कौन-कौन से योद्धा आए मैदान में
सहारनपुर : बसपा से माजिद अली
कैराना : भाजपा से प्रदीप कुमार, सपा से इकरा हसन
मुजफ्फरनगर : भाजपा से संजीव बालियान, सपा से हरेंद्र मलिक, बसपा से दारा सिंह प्रजापति
बिजनौर : रालोद से चंदन चौहान, सपा से यशवीर सिंह, बसपा से चौधरी बिजेंद्र सिंह
नगीना (आ.) : भाजपा से ओम कुमार, सपा से मनोज कुमार
रामपुर : भाजपा से घनश्याम लोधी
संभल : भाजपा से परमेश्वर लाल सैनी
अमरोहा : भाजपा से कंवर सिंह तंवर, बसपा से हाजी जमील
मेरठ : सपा से भानु प्रताप सिंह, बसपा से देवव्रत त्यागी
बागपत : रालोद से डॉ. राजकुमार सांगवान, बसपा से प्रवीण बैंसला
गौतमबुद्धगर : भाजपा से महेश शर्मा, सपा से राहुल अवाना। पहले सपा से डॉ. महेंद्र नागर थे
बुलंदशहर : भाजपा से डॉ. भोला सिंह
अलीगढ़ : सपा से बिजेंद्र सिंह
हाथरस : सपा से जसवीर वाल्मीकि
मथुरा : भाजपा से हेमामालिनी
आगरा : भाजपा से एसपी सिंह बघेल, बसपा से पूजा अमरोही
बरेली : सपा से प्रवीन सिंह ऐरन
बदायूं : सपा से शिवपाल यादव
मैनपुरी : सपा से डिंपल यादव
आंवला : भाजपा से धर्मेंद्र कश्यप व सपा से नीरज मौर्य
शाहजहांपुर : भाजपा से अरुण सागर व सपा से राजेश कश्यप
बिखरे जाटों को जोड़ने का दांव
पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के समय से ही जाट वोटर इस परिवार से जुड़ा रहा। जाट रालोद के लिए सबसे मजबूत वोट बैंक माने जाते रहे हैं। हालांकि वर्ष 2014 के आंकड़ों ने सभी को चौंका दिया। तब चुनाव में रालोद को मिलने वाला जाट समर्थन जबरदस्त तरीके से गिरा। थिंक टैंक सीएसडीएस के एक अध्ययन के अनुसार तो जाट वोटर भाजपा की ओर शिफ्ट होने लगा।
2012 के विधानसभा चुनावों में जाटों में भाजपा का जनाधार मात्र 7 प्रतिशत था। दो साल बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 77% जाट वोट मिले और पिछले लोकसभा चुनाव में भी थोड़ी गिरावट के साथ ही सही, यह सिलसिला जारी रहा।
रालोद को वर्ष 2014 के चुनाव में सिर्फ 0.9% वोट मिले थे, वह भी उस सूरत में जबकि उसे सपा और कांग्रेस का समर्थन था। वर्ष 2019 के चुनाव में बसपा भी साथ आई तो रालोद का वोटर शेयर 1.7 प्रतिशत हो गया, पर जीत की दहलीज से वह कोसों दूर ही रह गया। अब भाजपा ने जहां अन्य बचे जाटों को अपने पाले में लाने का दांव चला, तो रालोद ने भी इसे अहमियत दी।
जातीय ताने-बाने को सुलझाना बड़ी चुनौती
सैनी : सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलंदशहर, शामली, बिजनौर, अमरोहा और मुरादाबाद में सैनी समाज का बड़ा वोट बैंक है। अधिकतर सीटों पर इनकी संख्या दो से ढाई लाख है।
गुर्जर : मेरठ, गाजियाबाद, गौतमबुद्धनगर, बिजनौर, शामली, बागपत, सहारनपुर में गुर्जर निर्णायक भूमिका में हैं। यही वजह है कि गुर्जरों को लुभाने में सभी पार्टियां जुटी हुई हैं।
कश्यप : सामाजिक-न्याय समिति की 2001 की रिपोर्ट के अनुसार कहार, कश्यप, धींवर जाति के लगभग पच्चीस लाख लोग राज्य में रहते हैं। पश्चिमी उप्र में इन्हें केवल कश्यप या धींवर नाम से जाना जाता है। मुजफ्फरनगर, शामली, सहारनपुर, मेरठ, बागपत, मुरादाबाद, बरेली, आंवला, बदायूं जिले में इनका वोटर काफी महत्वपूर्ण है।
यादव : पश्चिमी यूपी की विभिन्न सीटों पर यादवों का भी खासा वोट बैंक है। बागपत, बुलंदशहर, मुरादाबाद, एटा, मैनपुरी सहित कई सीटों पर यादव निर्णायक भूमिका में हैं।
ठाकुर : पश्चिमी यूपी में हिंदू और मुस्लिम दोनों में ही ठाकुर हैं। गाजियाबाद, शामली, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, हापुड़, बुलंदशहर, अलीगढ़, मुरादाबाद, मेरठ, बरेली में सियासी तौर पर काफी मजबूत माने जाते हैं। किसी भी दूसरी जाति के साथ जुगलबंदी कर ठाकुर पश्चिमी उप्र में उम्मीदवारों को जीत दिलाते आए हैं।
ब्राह्मण एवं त्यागी : मेरठ, बुलंदशहर, गौतमबुद्धनगर, गाजियाबाद, अलीगढ़, हाथरस आदि में ब्राह्मण मतदाताओं का खासा दबदबा है। कभी कांग्रेस का वोट बैंक माने जाने वाले ब्राह्मण और त्यागी दोनों को ही भाजपा अपना वोट बैंक मानती है। हालांकि बसपा ने कई बार सोशल इंजीनियरिंग के जरिए ब्राह्मणों पर दांव लगाया, पर पिछले कई चुनावों से यह दांव फेल ही रहा।
वैश्य : कई सीटों पर वैश्य मतदाताओं की अच्छी-खासी संख्या है। यही वजह है कि मेरठ जैसी सीट पर भाजपा पिछले कई चुनाव से वैश्य उम्मीदवार उतारती रही है।
मुद्दे कम समीकरण ज्यादा
पश्चिमी उप्र में पिछले चुनाव में किसान आंदोलन की बड़ी धमक थी। हाईकोर्ट बेंच की मांग भी काफी पुरानी है। हालांकि एमएसपी पर गारंटी, समय से गन्ना मूल्य, बकाये पर ब्याज, पश्चिमी उप्र को अलग करने की मांग जैसे मुद्दे समय-समय पर उठते रहे। बहरहाल इस चुनाव में मुद्दों से ज्यादा गूंज जातीय समीकरणों की है। रालोद और भाजपा का गठबंधन होने के कारण कई मुद्दे तो ठंडे ही पड़ गए।