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उत्तर प्रदेश

विरासत-विकास से सोशल इंजीनियरिंग तक, रामलला के साथ देश के असली प्राण की भी प्रतिष्ठा

SaumyaV
22 Jan 2024 6:55 AM GMT
विरासत-विकास से सोशल इंजीनियरिंग तक, रामलला के साथ देश के असली प्राण की भी प्रतिष्ठा
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सही मायनों में यह देश के असली प्राण की प्रतिष्ठा है। अनुष्ठान में सांस्कृतिक-सामाजिक-आर्थिक, आध्यात्मिक विविधताओं का संगम, साधु-संतों से सामान्य जन और अर्थ-कला-शिक्षा, सेवा, उद्योग क्षेत्र में सक्रिय देश-विदेश की शख्सियतों का जुटान देश के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आधार है।

रामलला की प्राण प्रतिष्ठा महज धार्मिक अनुष्ठान अथवा सदियों की अपेक्षा और आकांक्षा की संतुष्टि भर नहीं है। न यह प्रतीकात्मक राष्ट्रवाद का अगला पड़ाव भर है। यह उससे आगे की तैयारी है। सही मायनों में यह देश के असली प्राण की प्रतिष्ठा है। अनुष्ठान में सांस्कृतिक-सामाजिक-आर्थिक, आध्यात्मिक विविधताओं का संगम, साधु-संतों से सामान्य जन और अर्थ-कला-शिक्षा, सेवा, उद्योग क्षेत्र में सक्रिय देश-विदेश की शख्सियतों का जुटान देश के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आधार है। अयोध्या के माध्यम से आध्यात्मिक व सांस्कृतिक विरासत में छिपे रोजगार व समृद्धि के असंख्य अवसरों की तरफ दुनियाभर को आकर्षित करने का प्रयास भी है।

जन-आस्था का लोक-उत्सव

कण-कण में व्याप्त प्रभु श्री राम देश की सनातन संस्कारशीलता और एकात्मता के प्रतीक हैं। वह जन-जन में रमे हैं, सब जन उनमें रमे हैं। राम में राष्ट्र को समरस बनाने की शक्ति है। भारतीय संस्कार एवं परंपराओं की अज्ञानता के चलते राजनीतिक लोग इसे विशेष विचारधारा या संगठन का आयोजन बता सकते हैं। यही नहीं, जिन लोगाें पर नई अयोध्या को आकार देने का दायित्व है, उनके भी राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं। लेकिन, लोक-उत्सव बन चुके इस आयोजन के संदेश, महत्व, राम के प्रति जन-आस्था, भक्ति को नजरअंदाज करने वाले बाद में लोगों के बीच कैसे जा पाएंगे, यह देखना भी रोचक होगा। भारतीय जनमानस को समझते, तो देश जोड़ने का यह उपक्रम किसी यात्रा से ज्यादा लाभकारी हो सकता था।

स्वावलंबन व संस्कारों का संगम

सुखद है कि प्रभु राम के बहाने जातीय समरसता, उत्तर-दक्षिण का भेद पाटने और विरासत आधारित विकास की संभावनाओं का संदेश देने के साथ सोशल इंजीनियरिंग साधने के प्रयासाें की दिशा सकारात्मक है। स्वावलंबन, स्वाभिमान, स्वरोजगार के साथ संस्कारयुक्त रहते हुए आध्यात्मिक चेतना के विकास से जुड़कर सांस्कृतिक विरासत में छिपी समृद्धि की संभावनाओं पर काम करने की ललक जगाने का प्रयास है। विदेश तक से प्रतिनिधियों को बुलाने के पीछे यह दिखाने की कोशिश भी है कि भारत में आस्था के टकराव को सांविधानिक तरीके से खत्म करने का सामर्थ्य है।

विरासत का वंदन

विरासत आधारित विकास पर काम सिर्फ अयोध्या में ही नहीं हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह 2014 से कर रहे हैं। यूपी में इसे गति योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद मिली। वाराणसी में तमिल संगमम के आयोजन और नई संसद में सेंगोल की स्थापना के बाद दक्षिण में राम से जुड़े ऐतिहासिक-धार्मिक स्थलों, मंदिरों में पूजा-अर्चना से मोदी ने उत्तर-दक्षिण की एकात्मकता को नए सिरे से संजोया है। जी-20 सम्मेलन के निमंत्रण पर भारत...भारत मंडपम का निर्माण और नटराज की मूर्ति की स्थापना ने भारतीय संस्कृति के समृद्ध प्रतीकों को वैश्विक पटल पर स्थापित किया। दरअसल, पीएम मोदी की दूरगामी सोच और उसे आकार देने की अद्भुत क्षमता, उन्हें दूसरे राजनेताओं से अलग करती है। उनका दायरा भी व्यापक होता है। मंदिर व विकास के साथ मीरा मांझी का ख्याल इसका एक प्रतीक है। प्रतिपक्षी सिर्फ इन प्रतीकों का सिरा पकड़ वितंडा करते रह जाते हैं, मोदी अगले लक्ष्य-संधान पर निकल जाते हैं। अगर यह राजनीति है, तो भी अद्भुत है।

राम से सधते सरोकार

असल में, राम के सरोकार एकसाथ जितने लक्ष्यों को साधते हैं, उतना दूसरे से नहीं सधते। महात्मा गांधी तक ने आदर्श शासन के लिए रामराज्य पर बल दिया था। रामराज्य यानी सभी के लिए अवसर। राज्य में समृद्धि। अशिक्षा, बीमारियों और गरीबी का उन्मूलन। महर्षि वाल्मीकि से तुलसीदास तक के राम समृद्धि को सिर्फ आर्थिक संपन्नता तक सीमित नहीं मानते। वह इसमें समाज के संस्कार, एक-दूसरे के सरोकारों को सम्मान देने के संकल्प, परस्पर प्रीति व रीति, अनुराग, स्नेह, सत्ता यानी पद-प्रतिष्ठा पाने की जतन की जगह त्याग की भावना का संकल्प देखते हैं।

राम की शक्ति सिर्फ सत्ता या शासन के विस्तार के लिए नहीं है। यह सभी को उनकी सांस्कृतिक विरासत से जोड़ते हुए भयमुक्त कर प्रगति के अवसर मुहैया कराने का संकल्प है। इसीलिए तो राम शत्रु पर विजय प्राप्त करने के बावजूद जीते हुए राज्य को अपने साम्राज्य में नहीं मिलाते, बल्कि उसी के वंशज को सौंपकर विरोधी के भी राज्य, संस्कृति व विरासत को अक्षुण्ण रखने की संस्कृति सिखाते हैं।

दलित ने रखी थी राम मंदिर की नींव

प्रधानमंत्री मोदी अयोध्या के जरिये सकारात्मक संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं। प्रयागराज कुंभ में सफाई कर्मचारियों के पैर धोने, बाबा विश्वनाथ धाम के लोकार्पण में श्रमिकों के साथ बैठने और भोजन करने, जी-20 सम्मेलन में कर्मचारियों-सुरक्षाकर्मियों से संवाद, सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों से निरंतर बातचीत, उनमें मौजूद किन्नर को सुरक्षा का भरोसा और अयोध्या में मीरा मांझी की चाय, पीएम मोदी की कोशिशों को ज्यादा व्यापक निहितार्थ वाला बनाते हैं। यह संदेश देने की कोशिश भी झलकती है कि सरकार की प्राथमिकता शोषित, वंचित व पिछड़े समाज को भी सम्मान, स्वाभिमान तथा समृद्धि के अवसर मुहैया कराना है।

संभवतः लोग भूल गए होंगे कि 9 नवंबर, 1989 को राम मंदिर निर्माण में पहली ईंट दलित कामेश्वर चौपाल ने रखी थी। आज जब प्राण प्रतिष्ठा हो रही है, तो यजमानों में उत्तर-दक्षिण से पूरब-पश्चिम तक की सभी जातियों-वर्गों, पंथ-परंपराओं की नुमाइंदगी है। समारोह में उपस्थिति मस्जिद के मुद्दई रहे इकबाल अंसारी की भी होगी, जिनके पिता हाशिम अंसारी रामजन्मभूमि के पक्षकार रहे महंत रामचंद्र दास परमहंस के साथ एक ही तांगे में अदालत जाते थे।

समरसता और विकास के मॉडल की अयोध्या

जाहिर है, मोदी के नेतृत्व में विरासत के साथ विकसित की जा रही नई अयोध्या से सिर्फ देश को समृद्ध करने के लिए काम करने का संदेश देने की कोशिश नहीं है। इसके जरिये सबका साथ-सबका विकास-सबका विश्वास और सबका प्रयास को साकार करने की गंभीर कोशिश दिखेगी। अयोध्या के सरोकारों के सहारे विकास, विरासत और सोशल इंजीनियरिंग पर संदेश देने के पीछे शायद एक वजह यह भी है कि बीते चार दशक में मंदिर-मस्जिद विवाद के चलते यह नगरी दुनियाभर में सबसे ज्यादा चर्चा में रही।

कुछ कारणों से अयोध्या को लेकर भारत में वर्ग विशेष के साथ भेदभाव और उसकी धार्मिक आस्था पर आघात की आवाजें भी उठती रहीं। ऐसे में अयोध्या को विरासत आधारित विकास के मॉडल में संदेश देने की तत्परता भी दिखती है कि भारत की विरासत अनेकता में एकता, विविधता में समरसता को सहेजने की सामर्थ्य रखती है। यह विकास सिर्फ सांस्कृतिक सरोकारों का भौतिक विकास नहीं है। इसका मकसद लोगों को संपन्न नहीं, समृद्ध बनाना है। संतुष्टि, संस्कार, सामंजस्य, सौहार्द का भाव भरना है।

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