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ऐसे-ऐसे जवान हुआ देश का लोकतंत्र, जानें चुनावी यात्रा के 17 अहम पड़ाव
स्वतंत्र भारत के दूसरे चुनाव तक पंडित जवाहरलाल नेहरू का आभामंडल चुनावी लोकतंत्र पर छा चुका था। 403 क्षेत्रों में 494 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव हुए और कांग्रेस ने 47.78 फीसदी वोट के साथ पिछली बार से भी बेहतर प्रदर्शन कर 371 सीटें जीत लीं।
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दर्जा रखने वाले भारत के नागरिक हर पांच साल में अपना मत देकर न सिर्फ अपनी पसंद की सरकार चुनते हैं, बल्कि साल-दर-साल जनतंत्र में विश्वास और बढ़ाते जा रहे हैं। यह भरोसा इतना बड़ा है कि चुनावों के बाद राजनीतिक सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण होता है। सत्ताधारी दल हो या विपक्ष, प्रतिकूल चुनावी फैसले को स्वीकार करते हैं। भारत की कल्याणकारी और सुरक्षात्मक प्रतिबद्धता नीतियों में परिलक्षित होती है। सभी सरकारें इन्हीं नीतियों पर चलती हैं। बीते 17 चुनावों के साथ हमारा लोकतंत्र लगातार परिपक्व होता जा रहा है।
1952: लोकतंत्र की दस्तक
आजाद भारत के नागरिकों ने संविधान तैयार होने के बाद पहली बार अपनी सरकार चुनने के लिए वोट डाला। कुल 401 लोकसभा क्षेत्रों में 489 सांसदों के लिए 17.32 करोड़ मतदाता थे। चक्कर खा गए? दरअसल पहले और दूसरे संसदीय चुनावों में कुछ लोकसभा सीटों पर दो प्रत्याशी चुने गए थे। पहली लोकसभा में 86 क्षेत्र ऐसे थे, जहां दो सांसद चुने गए। वहीं, उत्तरी बंगाल स्वतंत्र भारत की इकलौती सीट थी, जहां पहले चुनाव में तीन सांसद चुने गए थे। इन चुनावों में कांग्रेस ने 364 सीटें जीतीं, जबकि भारतीय जनसंघ को सिर्फ 3 सीटें मिलीं। निर्दलीय 37, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 16, सोशलिस्ट पार्टी 12 और अन्य को 57 सीटें मिलीं। कुल 44.87 फीसदी मतदाताओं ने वोट डाले।
1957: नेहरू का आभामंडल
स्वतंत्र भारत के दूसरे चुनाव तक पंडित जवाहरलाल नेहरू का आभामंडल चुनावी लोकतंत्र पर छा चुका था। 403 क्षेत्रों में 494 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव हुए और कांग्रेस ने 47.78 फीसदी वोट के साथ पिछली बार से भी बेहतर प्रदर्शन कर 371 सीटें जीत लीं। जयप्रकाश नारायण की अगुवाई वाली प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने 19, जबकि भाकपा ने 27 सीटें जीतीं। निर्दलीय भी पिछली बार से ज्यादा रहे। उन्होंने 42 सीटें जीतीं। जनसंघ इस बार भी संघर्ष करती रही और 4 सीटें हासिल हुईं। इस चुनाव में मतदाताओं की संख्या 19.36 करोड़ हो गई, जिनमें से 45.44 फीसदी ने मताधिकार का प्रयोग किया।
1962: कांग्रेस का जादू बरकरार
भारतीय लोकतंत्र के तीसरे चुनाव में मतदाताओं ने कोई खास बदलाव नहीं किया। एक संसदीय क्षेत्र से दो सांसद चुनने की परंपरा खत्म हो गई और 494 सीटों पर चुनाव हुआ। नेहरू का यह आखिरी चुनाव साबित हुआ। उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने 361 सीटें जीतीं। भारतीय जनसंघ को 14, स्वतंत्र पार्टी को 18, भाकपा को 29 और प्रजा सोशलिस्ट को 12 सीटें मिलीं। कुल 21.63 करोड़ वोटरों में से 55.42% ने अपने अधिकार का इस्तेमाल किया।
1967: नेहरू विहीन कांग्रेस
यह पहला चुनाव था, जिसमें कांग्रेस का नेतृत्व पंडित नेहरू नहीं कर रहे थे। उनकी बेटी इंदिरा गांधी को गूंगी गुड़िया मानकर कांग्रेस नेताओं ने 1966 में पीएम की कुर्सी पर बिठाया था, इसलिए चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया। 520 सीटों में से कांग्रेस को 283 सीटें मिलीं, जबकि दूसरे दलों व निर्दलीयों ने 237 सीटों पर जीत दर्ज की। पहली बार सत्ता पक्ष के सामने इतनी बड़ी संख्या में विपक्ष की मौजूदगी थी। स्वतंत्र पार्टी को 44, जनसंघ को 35 सीटें मिलीं थीं।
1971 : गरीबी हटाओ के नारे से शिखर पर इंदिरा
आजाद भारत में पहली बार तय समय से करीब एक साल पहले मध्यावधि चुनाव हुए। 1969 में इंदिरा गांधी को कांग्रेस के पुराने नेताओं ने पार्टी से निष्कासित कर दिया। हालांकि ज्यादातर सांसद उनके साथ रहे, जिसके कारण वह प्रधानमंत्री बनी रहीं और 1971 में मध्यावधि चुनाव करवाया। उन्होंने देश से गरीबी हटाओ का नारा दिया और इस नारे ने उन्हें फिर पीएम की कुर्सी तक पहुंचा दिया। 518 सीटों के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस को 352 व जनसंघ को 22 सीटें मिलीं।
1977 : आपातकाल के बाद नई सुबह, कांग्रेस सत्ता से बाहर
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के संसदीय निर्वाचन को रद्द किया, तो 1975 में उन्होंने आपातकाल लगा दिया। विपक्ष के बड़े नेता जेलों में बंद कर दिए गए। 1977 में उन्होंने स्थिति अपने मनमुताबिक समझ कर चुनाव का एलान किया। समाजवादी, दक्षिण और मध्यमार्गी पार्टियां जनता पार्टी के रूप में एकजुट हुईं और भारतीय लोकदल के निशान पर चुनाव लड़ा। कांग्रेस को सिर्फ 154 सीटें मिलीं। भारतीय लोकदल को 295 सीटें मिलीं। उत्तर भारत में कांग्रेस का पूरी तरह सफाया हो गया।
1980 : इंदिरा फिर सत्ता में
-जनता पार्टी की ओर से पहले मोरारजी देसाई और फिर पार्टी में विभाजन कर जनता पार्टी (सेक्यूलर) बनाकर चौधरी चरण सिंह कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने। हालांकि सिरफुटौव्वल से दोनों सरकारें गिर गईं। 1980 में हुए चुनाव में जनता ने फिर कांग्रेस का रुख किया और उसे 353 सीटें सौंप दी। 1980 में ही अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने भारतीय जनता पार्टी बनाई।
1984: राजीव राज
31 अक्तूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की उनके ही अंगरक्षकों ने हत्या कर दी थी, जिसके चलते चुनाव कराना पड़ा। सहानुभूति के रथ पर सवार इंदिरा के बेटे राजीव के नेतृत्व में कांग्रेस ने सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए। कांग्रेस को 542 सीटों में से 414 पर जीत मिली। उसे कुल मतदान के 48.12% वोट मिले। आजाद भारत के इतिहास में किसी पार्टी को अब तक इतने वोट या सीटें नहीं मिलीं।
1989: बोफोर्स से उड़ा राजीव राज
राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स तोप सौदे में उन पर दलाली का आरोप लगाया। जनता दल बनाया। मतदाताओं की नाराजगी के चलते कांग्रेस 197 सीटें ही जीत पाईं। जनता दल सरकार बनी। वीपी सिंह पीएम बने। बाद में चंद्रशेखर सरकार से अलग हुए और कांग्रेस के सहयोग से पीएम बने।
1991: फिर सहानुभूति लहर
कांग्रेस ने चंद्रशेखर सरकार से समर्थन वापस लिया, तो फिर चुनाव कराने पड़े। चुनाव के दौरान तमिलनाडु में आत्मघाती हमलावरों ने बम धमाके में राजीव गांधी की हत्या कर दी। सहानुभूति लहर में कांग्रेस को 244 सीटें मिलीं। आंध्र के दिग्गज कांग्रेसी पीवी नरसिंह राव पीएम बने। पांच साल अल्पमत सरकार चलाने वाले पहले पीएम रहे।
1996: भाजपा का अभ्युदय पर 13 दिन चली सरकार
भारतीय राजनीति में 1996 मील का पत्थर है क्योंकि दक्षिणपंथ की राजनीति सत्ता के केंद्र में आई। 1992 में अयोध्या का विवादित ढांचा गिरने के बाद भाजपा पहली बार 161 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी। अटल बिहारी वाजपेयी गैर कांग्रेसी पृष्ठभूमि के पहले प्रधानमंत्री बने। हालांकि सरकार 13 दिन ही चली। इसके बाद कांग्रेस के बाहरी समर्थन से एचडी देवगौड़ा, फिर आईके गुजराल पीएम बने। 1998 में फिर चुनाव घोषित हो गए।
1998: 13 दिन से 13 महीने
जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार की समता पार्टी पहले ही साथ आ चुकी थी। तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक, आंध्र प्रदेश की टीडीपी समेत कई छोटे दलों की मदद से भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी। अटल फिर पीएम बने, लेकिन 13 माह बाद अन्नाद्रमुक ने समर्थन वापस ले लिया।
1999 : 24 दलों की सरकार
सिर्फ 13 माह में सरकार गिरने से नाराज जनता ने फिर अटल पर भरोसा जताया और 24 दलों वाले एनडीए को 269 सीटें सौंप दी। भाजपा को 182 सीटें मिलीं। कांग्रेस की सीटें गिरकर 114 पर आ गईं। आंध्र में तेलुगू देशम पार्टी को 29 सीटें मिलीं। उसने एनडीए को समर्थन दिया। इसके चलते अटल कार्यकाल पूरा करने वाले पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बन गए। हालांकि समाजवादी पृष्ठभूमि वाले सहयोगियों के दबाव में वे पार्टी के तीन मुख्य मुद्दों को अमल में नहीं ला सके। इससे जनता में नकारात्मक राय बनने लगी। हालांकि एनडीए के सफल प्रयोग को देखते हुए कांग्रेस ने भी गठबंधन की राजनीति का रुख कर लिया।
2004 : मनमोहन सिंह पार्ट-1
2003 में तीन हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा की जीत से उत्साहित अटल के सलाहकारों ने उन्हें समय से पहले ही चुनाव कराने की सलाह दी। इंडिया शाइनिंग के नारे के साथ चुनाव की घोषणा हो गई। हालांकि, जनता को इंडिया जगमगाता नहीं लगा और एनडीए 187 सीटों पर सिमट गई। भाजपा को 138 सीटें मिलीं। सोनिया गांधी की अगुवाई में लड़ी कांग्रेस को 145 सीटें मिलीं और उसने गैर एनडीए दलों के साथ यूपीए सरकार बनाई।
2009 : मनमोहन सिंह पार्ट-2
किसान कर्ज माफी जैसे लोकलुभावन फैसले ने यूपीए को लगातार दूसरी जीत दिलाई। कांग्रेस की सीट संख्या 206 आैर यूपीए की 322 पहुंच गई। मनमोहन दूसरी बार पीएम बने, लेकिन सहयोगी दलों के भ्रष्टाचार के कारण टूजी घोटाला, कोयला घोटाला, बढ़ती महंगाई को लेकर सरकार की लोकपि्रयता लगातार गिरती गई।
2014: राजनीति का मोदी युग
2014 में नरेंद्र मोदी केंद्रीय राजनीति में धूमकेतु की तरह उभरे। उन्होंने वह कमाल करके दिखाया, जो कोई गैर कांग्रेसी नेता नहीं कर पाया था। उनके नेतृत्व में भाजपा पहली बार पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई। यूपीए सरकार की भयंकर अलोकप्रियता और हिंदू हृदय सम्राट की छवि को जोड़कर चुनाव मैदान में उतरे नरेंद्र मोदी ने भाजपा को पहली बार अपने दम पर बहुमत दिला दिया। पार्टी को 282 सीटें और एनडीए को 325 सीटें मिलीं। कांग्रेस 44 पर सिमट गई। इतनी सीटें भी नहीं पा सकी कि संसद में नेता प्रतिपक्ष के पद के लिए दावा कर सके। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। मोदी के इस कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि महंगाई पर सख्ती से लगाम लगाना रही।
2019: मोदी नाम केवलम
सबका साथ, सबका विकास नारे के साथ नरेंद्र मोदी की अपार लोकप्रियता के रथ पर सवार भाजपा ने अपने दम पर 303 सीटों का आंकड़ा हासिल कर लिया। पश्चिम बंगाल, पूर्वोत्तर, दक्षिण के कर्नाटक और तेलंगाना जैसे क्षेत्रों में उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया। साबित हो चुका था कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा उन राज्यों में पैठ बना चुकी है, जहां कभी उसका झंडा उठाने वाले भी मुश्किल से मिलते थे।