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कोई चौंकाने वाला बदलाव नहीं होगा लेकिन भाजपा को यूपी में कुछ तो करना होगा! जानें क्या करना होगा?
नई दिल्ली। यूपी में लोकसभा चुनाव में पिछड़ने को लेकर भाजपा ने खूब आत्ममंथन कर लिया। पार्टी के अंदर आरोप प्रत्यारोप का भी दौर चला। योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य के बीच का अनबन भी सामने आ गया। लखनऊ की लड़ाई दिल्ली तक पहुंच गई। दिल्ली में हाई लेवल मीटिंग हुई लेकिन नतीजा कोई ठोस नहीं निकल सका। पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया कि 2027 का चुनाव जीतने के लिए कौन सा हथकंडा सटीक होगा।
बीते दो दिनों के घटनाक्रम को देखते हुए जनता ने तो यहां तक अनुमान लगा लिया कि कहीं योगी को बदल ना दिया जाए। लेकिन अब यह साफ हो गया है कि ना तो योगी बदले जाएंगे और ना ही कोई चौंका देने वाला फेरबदल होगा। ज्यादा से ज्यादा मंत्रिमंडल और संगठन में थोड़ा बहुत बदलाव होने जा रहा है, वह भी 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव के बाद। ऐसे में ही यह सवाल उठ रहा है कि आखिर 2027 का चुनाव जीतने के लिए क्या किया जाए?
भाजपा के केंद्रीय रणनीतिकारों का मानना है कि जातीय समीकरण में सियासी दाव पेंच से ही माहौल को अनुकूल बनाया जा सकता है। इसे इस तरह से समझे कि यूपी में ओबीसी 40%, दलित 20% और जनरल 25% है। पहले पिछड़ा और दलितों का वोट समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच बंटता था और इन्हीं दोनों में से किसी एक की सरकार बनती थी। भाजपा हर चुनाव में पीछे रह जाती थी। इन स्थितियों का सामना करने के लिए भाजपा हिंदुत्व का मुद्दा लेकर पूरे दमखम से जनता के बीच आई। हिंदुत्व के मुद्दे पर जनता को गोलबंद करने में भाजपा सफल रही और उनकी सरकार बनी।
2024 के लोकसभा चुनाव में हालात बदल गए। कहीं ना कहीं जनता को यह लगा कि सिर्फ हिंदू हिंदू करने से पेट नहीं भरने वाला और ऐसे में जनता भाजपा से किनारा करने लगी। तब जनता के सामने महंगाई बेरोजगारी जैसे गंभीर मुद्दों को लहराने में कांग्रेस और सपा ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। प्रचार प्रसार में मायावती पीछे पड़ गई और सपा ने इस वोट बैंक की घेराबंदी कर ली। इसका नतीजा लोकसभा चुनाव के रिजल्ट में साफ-साफ देखने को मिला। अब इस बदले हुए हालात में भाजपा के सामने फिर से पिछड़ों और दलितों के वोट बैंक पर आधिपत्य जमाने की सबसे बड़ी चुनौती है। इस चुनौती से लड़ने के लिए पार्टी के अंदर कोई फेरबदल करने से कोई लाभ नहीं मिलेगा। वही हिंदू मुसलमान के सियासत से भी कोई फायदा मिलता अब भाजपा को नजर नहीं आ रहा है।
लखनऊ से दिल्ली तक हुए चिंतन मंथन से शीर्ष नेतृत्व यह समझ चुका है कि 2027 के चुनाव में परचम लहराने के लिए कुछ करना होगा और करना यही होगा कि इस वोट बैंक को अपनी तरफ मोड़ना होगा। केंद्रीय नेतृत्व यह समझ चुका है कि यूपी में सरकार और संगठन में फेरबदल करने का असर मतदाताओं पर नहीं पड़ेगा लेकिन इस चुनौती से लड़ना कोई आसान बात नहीं होगी। हालांकि अभी चुनाव में ढाई साल बाकी है और यह अवधि जातीय समीकरण में सियासी दाव पेंच करने के लिए कम नहीं है। हालांकि यह बात भविष्य के गर्भ में है कि जीत दिलाने वाला वोट बैंक 2027 में किस करवट बैठेगा?