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जात-पात पर भारी क्षेत्रीय पहचान, दिल्ली में राष्ट्रीय मुद्दे और नेतृत्व भी रखता है मायने
जातीय पहचान मतदाता को एक साथ नहीं ला पाती। मतदान के सामाजिक मनोविज्ञान में अभी तक तवज्जो क्षेत्रीयता को मिली है।
सियासत में बेशक जातिगत जनगणना की चर्चा आम है, लेकिन महानगरीय शहर दिल्ली का मतदाता अमूमन जात-पात पर वोट नहीं करता। जातीय पहचान मतदाता को एक साथ नहीं ला पाती। मतदान के सामाजिक मनोविज्ञान में अभी तक तवज्जो क्षेत्रीयता को मिली है। पंजाबी/सिख, पूर्वांचल, उत्तराखंड समेत दूसरे राज्यों से ताल्लुक रखने वाला मतदाता आसानी से एक साथ आ जाता है। सांस्कृतिक रवायतें व भाषा भी इन्हें एकसूत्र में पिरोने का काम करती है। विशेषज्ञों का मानना है कि राष्ट्रीय मुद्दों व नेतृत्व के साथ इनका तालमेल नतीजों को तय कर देता है। इसका अपवाद बस दिल्ली का जाट व गुर्जर समाज है। ये अपने समुदाय के उम्मीदवार के साथ एकजुट हो जाते हैं।
दरअसल, दिल्ली में जातीय पहचान खास मायने नहीं रखती। देश के अलग-अलग हिस्सों से रोजगार की तलाश में दिल्ली पहुंचाने वालों की प्राथमिकता सुरक्षा जनित रहती है। शहर में पहला जुड़ाव उसे अपने क्षेत्र के लोगों से होता है और वह भी उसी पेशे में जुड़ जाता है, जिसमें उससे पहले आने वाले लोग थे। दिल्ली में करीब 90 फीसदी निर्माण मजदूर बुंदेलखंड, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ से हैं। रेहड़ी-पटरी व ट्रांसपोर्ट सेक्टर पर पूर्वांचल के लोग काबिज हैं। हर ढाबे पर उत्तराखंड के लोग काम करते मिल जाएंगे। चुनाव के वक्त राजनीतिक दल इसी पहचान को खाद-पानी देकर वोटर समूह में तब्दील कर देते हैं।
चुनाव के दौरान उम्मीदवारों के चयन से लेकर में भी इसकी झलक दिखती है। बड़ी संख्या में उत्तर प्रदेश, बिहार व पंजाब के नेता दिल्ली के पूर्वांचल और पंजाबी बहुल इलाकों में प्रचार के दौरान दिख जाते हैं और जहां दक्षिण भारत के लोग रहते हैं, वहां दक्षिण भारतीय नेता प्रचार में होता है। क्षेत्रीय आधार के भरोसे ही लाल बिहारी तिवारी, महाबल मिश्रा व मनोज तिवारी, विजय कुमार मल्होत्रा, मदन लाल खुराना, अजय माकन व ललित माकन की संसद की राह आसान हुई है।
लोकसभा चुनाव में मतदाता के क्षेत्रीय आधार के साथ-साथ राष्ट्रीय मुद्दे व नेतृत्व में भरोसा दिल्ली के वोटर को प्रभावित करने में अहम साबित होता है। हर चुनाव में इसे देखा जा सकता है। बीते दो संसदीय चुनावों की ही बात करें तो भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा था, जिसे दिल्लीवालों ने हाथो-हाथ लिया। इसके साथ भाजपा के पास एक भरोसेमंद नेतृत्व भी था और वोटर भाजपा के साथ गए।
- प्रो. चंद्रचूड़ सिंह, राजनीतिक विश्लेषक और प्रोफेसर राजनीति विभाग, डीयू
दिल्ली का अपना मिजाज है। यहां लोगों को संगठित करने में सुरक्षा, भावनात्मक लगाव, भाषा व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अहम होती है। रोजी-रोटी के लिए बाहर से आकर दिल्ली में बसने वालों में इस तरह की प्रवृत्ति का होना स्वाभाविक है। बाद में चुनाव समेत दूसरी राजनीतिक गतिविधियों में भी यही पहचान उभरकर सामने आती है। आज से 20-25 साल पहले कौन कल्पना कर सकता था कि दिल्ली में इतने बड़े पैमाने पर छठ पर्व का आयोजन होगा, लेकिन आबादी बढ़ने के साथ हो रहा है। इसी तरह पंजाब के त्योहार भी बड़े पैमाने पर आयोजित होते हैं।
- प्रो. संजय भट्ट, समाज विज्ञान व सेवानिवृत्त प्रोफेसर, डीयू
जाट-गुर्जर वोटर साबित हुए अपवाद
जाट और गुर्जर इस मामले में अपवाद है। इस तबके का वोटर अपने समुदाय के उम्मीदवार की तरफ जुड़ जाता है। दिल्ली से चौधरी दिलीप सिंह, सज्जन कुमार, साहिब सिंह वर्मा, रमेश कुमार, प्रवेश वर्मा, चौधरी भरत सिंह व चौधरी तारीफ सिंह के संसद पहुंचने में जातीय समीकरण की भी भूमिका रही है। इस कारण ही जाट बहुल पश्चिमी दिल्ली सीट पर पार्टियां जाट उम्मीदवारों को प्राथमिकता देती हैं। दूसरी तरफ गुर्जर समुदाय से आने वाले रमेश बिधूड़ी को दक्षिणी दिल्ली का प्रतिनिधित्व सौंपा गया है।