Ayodhya Ram Mandir: अयोध्या के कनक भवन की तरह इस शहर में भी है राम दरबार,यहां के संत करते थे रामलला की पूजा
बरेली के किला क्षेत्र स्थित तुलसी मठ का श्री राम जन्मभूमि से आध्यात्मिक नाता है। यहां के महंत नीरज नयन दास बताते हैं कि रामानंदीय संप्रदाय के इस प्रमुख और प्राचीन मंदिर में अयोध्या के कनक भवन के स्वरूप में श्री राम दरबार प्रतिष्ठित है। यहां के पूर्व आचार्यों ने शताब्दियों तक श्री राम जन्मभूमि की पूजा-अर्चना एवं सेवा प्रमुखता से की है। श्री राम जन्मभूमि की पूजा पहले तुलसी मठ के अधीन ही थी। यहां से आचार्य और पुजारी बारी-बारी से श्री राम जन्मभूमि की सेवा में आते-जाते रहते थे।
रामानंदीय वैष्णव परंपरा के तहत निर्मोही अखाड़े के वैष्णव पूरी व्यवस्था देखते थे। यहां संचालित गुरुकुल के छात्र देश-विदेश में तुलसी मठ का नाम रोशन कर रहे हैं। वर्ष 1950 तक महंत स्वामी प्रमोदवन बिहारीदास ने इस व्यवस्था का निर्वहन किया। बाद में उन्होंने अयोध्या में निर्मोही अखाड़े के दूसरे संतों को यह व्यवस्था सौंप दी थी। उनके झंडे का निशान और चित्र आज भी तुलसी मठ में है। उसमें हनुमान और सूर्य भगवान विराजमान हैं।
संतों ने वर्ष 1650 में संत पत्रिका नामक पुस्तक लिखी थी। बनारस हिंदी विश्वविद्यालय की प्रोफेसर और काशी विद्वत परिषद की सदस्य डॉ. कमला पांडेय ने वर्ष 2022 में इसका संकलन किया है। इस संकलन के अनुसार तीन हजार साल पहले महात्माओं ने इस वन प्रदेश को अपनी तपोस्थली बनाया था। उनमें तुलसीदास भी शामिल थे। मठ के ताम्रपत्र में लिखा है कि वर्ष 1570 में वह इस घनघोर जंगल में तपस्या करते थे। उनके आस-पास सभी जंगली जानवर आपसी बैर को भूल घेरा बनाकर एक साथ रहते थे। उन्हीं के नाम पर इसका नाम तुलसी मठ पड़ा।
सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल है यहां का शिवालय
यहां का शिवालय सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक है। इसमें इस्लाम का प्रतीक चिह्न (चांद-तारा) विपरीत दिशा में लगवाया गया है जो आज भी दिखाई देता है। संत पत्रिका के संकलन के मुताबिक कुछ दिनों के बाद नवाब आसिफउद्दौला दोबारा यहां आया और महात्मा के चरणों में गिरकर रोने लगा। पूछने पर ज्ञात हुआ कि वह भयंकर व्याधि से पीड़ित है। इस पर महात्मा ने उसे श्री राम नाम सुमिरन करने की सलाह दी। संत की अप्रतिम दिव्यता से अभिभूत नवाब ने यवन होते हुए भी रातभर राम का नाम लिया। इससे उसकी मनोकामना पूर्ण हुई।
नवाब ने संत को बहुत कुछ देना चाहा पर उन्होंने अस्वीकार कर दिया। बाद में नवाब की संतान हुई तो उसने तुलसी मठ को 12 गांवों की जमींदारी सौंपने का आग्रह किया लेकिन संत ने फिर इसे अस्वीकार कर दिया। नवाब के काफी विनय करने पर उन्होंने शिवालय निर्माण में उसका सहयोग स्वीकार किया था। निर्मोही अखाड़े के संतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार यह स्थल गोस्वामी तुलसीदास जी के गुरु नरहरिदास जी से भी जुड़ा है।
यहां मौजूद है हनुमान जी का दुर्लभ विग्रह
महंत नीरज नयन दास ने बताया कि यहां पर हनुमान जी का अत्यंत दुर्लभ विग्रह मौजूद है। इस मूर्ति को स्वयं तुलसीदास जी आदि संतों ने तुलसी पत्र पर 12 करोड़ श्री राम नाम लिखकर गंगा जी की मिट्टी में उसे लपेटकर भित्ति चित्र के रूप में इस मूर्ति को गढ़ा था। जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती, स्वामी कृष्णबोधाश्रम जी महाराज, स्वामी करपात्री जी महाराज, पंडित रामकिंकर उपाध्याय आदि संतों इस विग्रह का दर्शन कर चुके हैं।
आसिफउद्दौला भी हुआ था नतमस्तक
संकलन के मुताबिक वर्ष 1703 में अवध का नवाब आसिफउद्दौला इसी वन में शिकार की खोज में दिनभर भटकता रहा। उसे कोई शिकार नहीं मिला तो उसने बरेली निवासी वजीर टिकायत राय से इसका कारण पूछा। टिकायत राय ने बताया कि यहां एक सिद्ध संत रहते हैं। उनके प्रभाव के कारण ही शिकार नहीं मिला।
नवाब वजीर के साथ संत के पास पहुंचा तो वह समाधि में लीन थे और वन्यजीव उनके चारों ओर बैठे थे। इसे देखकर नवाब भी नतमस्तक हुआ और सेवा की अनुमति मांगी। तब संत ने कहा कि वन्यजीवों की हिंसा छोड़ दो। यही हमारी सेवा है। दीवान टिकैत ने वहां शिव मंदिर बनाने की आज्ञा मांगी। सात दिन वहां रुककर मंदिर के निर्माण का प्रबंध कर वह भी लखनऊ चले गए थे।