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सागरिका की किताब में एक नयी इंदिरा !
देश में दो दशक तक राज करने वाली भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर एक नई किताब लिखी गई है. सागरिका घोष ने किताब को लिखने से पहले इंदिरा गांधी के बारे में 80 के आसपास किताबों, आर्टिकल और इंटरव्यू का अध्ययन कर चुकीं हैं। इदिरा गांधी की जीवनी लिखने वालों में अभी तक कैथरीन फ्रैंक का नाम ही जाना जाता था, लेकिन वरिष्ठ टीवी पत्रकार सागरिका घोष की लिखी किताब Indira: India’s Most Powerful Prime Minister ये किताब अब उन्हें टक्कर दे रही है। किताब में सागरिका ने इंदिरा के आनंद भवन में बीते बचपन के बारे में कई बातों का ज्रिक किया है। इसमें बताया गया है कि कैसे बचपन में इंदिरा गांधी एक टॉमब्वाय की तरह रहा करतीं थीं। घोष किताब के परिचय में लिखती है की वो इंदिरा को एक आशंकित बेटी, धोखा खाई हुई पत्नी, राष्ट्रीय नायिका और एक कठिन तानाशाह के रूप में देखती है. और ये किताब अपने वादों पर खरी भी उतरती है.इस किताब की बात करें तो इंदिरा और फीरोज गांधी के रिश्तों को एक अलग रुप देने की कोशिश की है। फीरोज के रूमानी किस्सों की हकीकत चाहे जो भी हो, उनके बारे में खूब बातें होतीं थी । ज्यादातर लोगों को यही लगता था कि या तो फीरोज के अफेयर्स के चलते दोनों के बीच तलाक होगा या फिर इंदिरा की बेवफाई के चलते। ऐसी अफवाह थी कि इंदिरा का अफेयर नेहरू के सेक्रेटरी, एमओ मथाई से था। मथाई 1946 से लेकर 1959 तक नेहरू के सेक्रेटरी के तौर पर काम किया था । वो बेबाक थे जिसपर नेहरू पूरी तरह से भरोसा करते थे। इंदिरा गांधी के जादू का आखिर रहस्य क्या है? ऐसा क्यों है कि उत्तर भारत की दूरदराज बस्तियों में बड़े-बुजुर्ग आज भी उनका नाम सुनते ही भावुक होकर यादों के भंवर में गोते लगाने लगते हैं? ऐसा क्यों है कि दक्षिण भारत के गांवों में आज भी उनकी तस्वीर लोगों ने अपने घरों में लगा रखी है? ऐसा क्यों है कि नई दिल्ली के सफरदगंज रोड स्थित उनके पुराने घर में बने उनके स्मारक संग्रहालय में आज भी बड़ी संख्या में लोग उनकी याद ताजा करने आते हैं जिनकी संख्या महात्मा गांधी के स्मारकों, गांधी स्मृति अथवा उनकी समाधि राजघाट के दर्शन करने आने वालों से कहीं अधिक है? ऐसा क्यों है कि उनके बाद दो पीढ़ियां निकलने के बावजूद कांग्रेस को वोट जुटाने के लिए उन्हीं के व्यक्तित्व को आगे रखना पड़ता है? यह पुस्तक हमें इंदिरा के हर उस दौर से रुबरु कराती है जिसमें एक राजेनता अनगिनत उतार-चढ़ावों से गुजरती हैं। 49 वर्ष की आयु में इंदिरा पहली बार प्रधानमंत्री बनती हैं तो हवाओं का रुख बदल जाता है। हालांकि उससे कुछ समय पूर्व मोरारजी देसाई मांग करते हैं कि कांग्रेस के सभी सांसद दोनों में से एक को चुनने के लिए मतदान करें। जनवरी 1966 में हुए गुप्त मतदान में इंदिरा गांधी को 355 वोट मिलती हैं, जबकि मोरारजी केवल 169 पर सिमट जाते हैं। पीएम की कुर्सी तक पहुंचने से पहले के बारे में सागरिका लिखती हैं कि यदि लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु न होती, यदि इंदिरा कनिष्ठ मंत्री ही बनी रहतीं तो शायद वे अंततः भारत छोड़ कर चली जातीं। समय ने ऐसी करवट ली कि शास्त्री की मृत्यु ने उनका रास्ता साफ कर दिया।
इंदिरा गांधी ने ‘ईश्वर के नाम पर शपथ’ लेने के बजाय उन्होने दूसरे शब्दों में कहना उचित समझा और कहा ‘मैं विधिपूर्वक प्रतिज्ञा करती हूं’ शब्दों का उच्चारण किया। ऐसे तमाम उदाहरण इस पुस्तक में देखने को मिलते हैं जब नेहरु की बेटी चीजों को अपनी तरह से मोड़ते हुए आगे बढ़ती है। उसका उद्देश्य जो भी रहा हो, लेकिन वह ‘गूंगी गुड़िया’ की अपनी छवि को बदलती गयी। वह तानाशाह की अपनी छवि को अपने आखिरी दिनों में बदल रही थी। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या उनके सुरक्षा गार्ड ने ही कर देते हैं। वह घटना और उसके बाद की घटनाएं भारत को बदल कर रख देती हैं। यह किताब कई उत्तर तलाशती है और कई रहस्यों का तथ्यों के साथ खुलासा भी करती है। उस समय की राजनीति और आज की राजनीति किस तरह परिवर्तित हुई, यह इस दौर के राजनीतिक परिद्शय से समझा जा सकता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इंदिरा गांधी और उनसे जुड़े लोगों की जिंदगी में झांकने का यह आसान रास्ता हो सकता है।
आपातकाल के दौर पर सागरिका लिखती हैं कि बीबीसी के मार्क टली सहित विदेशी पत्रकारों को भारत छोड़ कर जाने का फरमान सुना दिया गया था। ढाइ सौ से अधिक पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया गया जिनमें इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े कुलदीप नैयर भी शामिल थे। कई बंदी सलाखों के पीछे मर गए। जयपुर की महारानी गायत्री देवी और ग्वालियर की विजया राजे सिंधिया को भी जेल में डाल दिया गया। 1975 में लगाए गए आपातकाल को भले ही आज पूरे 48 साल हो चुके हैं। इमरजेंसी के दौरान हुई सख्ती को लेकर सियासी विवाद होता रहा है। 48 साल बीत जाने के बाद भी उस दौर की यादें उस समय के विपक्ष के नेताओं के जेहन में आज भी ताजा हैं।