महाभारत काल की कथा और केदारनाथ के रहस्य के साथ बद्रीनाथ मंदिर में शंख क्यों नहीं बजाते

Update: 2023-09-05 12:59 GMT

केदारनाथ धाम को भगवान शिव के धाम के तौर पर जाना जाता है. लेकिन अगर मैं आपसे ये कहूँ कि केदारनाथ भगवान शिव का नहीं बल्कि भगवान श्री कृष्ण का धाम है.तो आप चौंक जाएंगे ना, लेकिन ये सत्य है, आज इस वीडियो में हम आपको केदारनाथ ज्योतिर्लिंग से जुड़ी अनोखी और आलोकिक रहस्यों के बारे में बताएंगे उनमें से एक बैल रूपी शिवलिंग की स्थापना कब और कैसे हुई, साथ ही ये भी बताएंगे कि इस पवित्र धाम का रहस्य क्या है.यहां महाभारत काल से जुडी कौन कौन सी किंदँतिया प्रचलित हैं. यहाँ भगवान् शिव की सेवा करने वाले पुजारी ने कैसे और कब किया महादेव का साक्षात् दर्शन, और बद्रीनाथ धाम में शंक बजाना क्यों है वर्जित.

दोस्तों, बारह महादेव की ज्योतिर्लिंग में केदारनाथ धाम की मान्यता सबसे ज़्यादा है.  यहां शिवलिंग का आकार बैल की पीठ के समान त्रिकोणाकार है.पौराणिक कथाओं की मानें तो इस ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मंदिर का निर्माण महाभारत का युद्ध ख़त्म होने के बाद कराया गया था. हिंदू धर्म के अनुसार महाभारत काल में भगवान शिव ने पांडवों को साक्षात् दर्शन दिया था.  जिसमें सबसे श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने महाभारत युद्ध के दौरान अपने विजयी होने की शुभकामना और विजयी होने का उपाय पूछा था तब उन्हें ज्ञान के देवता धर्मराज यम ने ये सलाह दी थी कि वे भगवान शिव की तपस्या करें.

युधिष्ठिर ने धर्मराज की सलाह को मानते हुए केदार नाथ क्षेत्र में भगवान शिव की तपस्या की जिसके बाद उन्होंने लंबे समय तक कड़ी तपस्या की जिससे भगवान शिव खुश हुए और उन्हें विजयी होने का आशीर्वाद दिया. भगवान शिव ने पाँचो पांडवों समेत द्रौपदी को अपने साक्षात दर्शन दिए और उन्हें आशीर्वाद दिया. जिसके परिणाम स्वरुप पांडवों को भगवान शिव का दर्शन होने से उन्हें विजयी होने में मदद मिली और युद्ध में उनकी विजय का मार्ग प्रशस्त हुआ.  यह घटना हिंदू पौराणिक कथाओं में विस्तार से वर्णित है

वहीं धार्मिक ग्रंथों में वर्णित दूसरी कथा के अनुसार महाभारत युद्ध में विजय के पश्चात पांडवों में सबसे जेश्ट युधिष्ठिर का राज्य अभिषेक हस्तिनापुर के राजा के रूप में किया गया था जिसके बाद चार दशक तक युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर पर राज किया. इसी दौरान पांचो पांडव भगवान श्री कृष्ण के साथ बैठकर महाभारत युद्ध की समीक्षा कर रहे थे समीक्षा करते हुए पांडवों ने श्री कृष्ण से कहा कि हे नारायण! हम सभी पांडवों के ऊपर ब्रह्म हत्या के साथ-साथ अपने बंधु बंधुओं की हत्या का कलंक है इस कदम को कैसे दूर किया जाए कृपया इसका उपाय बताएं. जिसके बाद भगवान कृष्ण ने पांडवों से कहा. यह सच है कि युद्ध में जीत तुम्हारी हुई है लेकिन तुम लोग अपने गुरु और बंधु बंधुओं को मारने के कारण पात के भागीदार बन चुके हो और इन्हीं पापों के कारण तुम लोगों को मुक्ति मिलना असंभव है लेकिन इन पापों से निजात तुमको सिर्फ एक ही देवता दिला सकते हैं और वह है स्वयं महादेव. इसीलिए तुम सबको महादेव की शरण में जाना चाहिए.जिसके बाद पांडवों को रास्ता दिखलाने के पश्चात भगवान श्री कृष्ण द्वारका लौट गए. भगवान श्री कृष्ण के बताए मार्ग और अपने पापों के बारे में सोच सोच कर पांडव चिंतित रहने लगे. और मन ही मन यह सोचने लगे कि किस तरह और कब राजपाट को त्याग कर भगवान शिव की शरण में जाया जाए.


इन सब के बीच एक दिन पांडवों को पता चला की सदैव उन का मार्ग प्रशस्त करने वाले वासुदेव ने अपनी देह त्याग दी है और वह अपने परमधाम लौट गए हैं,,, यह सुनकर पांडवों को पृथ्वी पर रहना अब उचित नहीं लग रहा था. महाभारत के युद्ध में सभी बंधु बांधव और गुरु पितामह पहले ही पीछे छूट चुके थे और अब तो वासुदेव भी उनके साथ नहीं थे. ऐसे में पांडवों ने अपना पूरा राजकाज राजा परीक्षित को सौंप दिया था. और अपनी पत्नी द्रौपदी समेत हस्तिनापुर को छोड़कर शिवजी की तलाश में दर-दर भटकने लगे. हसनापुर से निकलने के बाद सबसे पहले पांचों भाई और द्रौपदी शिवजी के दर्शन के लिए सबसे पहले पांडव काशी पहुंचे पर वहां जब महादेव उन्हें नहीं मिले. जिसके बाद इन सब ने मिलकर कई और जगहों पर भगवान शिव को ढूंढना शुरू किया,,, परंतु जहां कहीं भी यह लोग जाते भगवान शिव वहां से पहले ही चले जाते. महादेव को ढूंढते ढूंढते यह सभी लोग एक दिन हिमालय पर्वत तक आ पहुंचे यहां भी जब शिवजी ने इन लोगों को देखा तो वह छिप गए. 

मगर इस बार युधिष्ठिर ने भगवान शिव को छिपते हुए देख लिया था. तब युधिष्ठिर ने भगवान शिव से आग्रह किया हे प्रभु! आप कितना भी छुप जाएं लेकिन हम आप के दर्शन किए बिना यहां से नहीं जाएंगे. और मैं यह भी जानता हूं कि आप इसलिये छिप रहे हैं. क्योंकि हमने युद्ध भूमि में अपने प्रिय जनों की हत्या करके घोर पाप किया है. युधिष्ठिर के इतना कहने के बाद ही पांचो पांडव आगे बढ़ने लगे और उसी समय तीव्र गति से से पीछे से आ रहा एक बैल उन पर झपट पड़ा. जिसके बाद पांडवों में सबसे ज्यादा शक्तिशाली भीम ने आगे आकर बैल का सामना किया.इस लड़ाई में बैल ने अपना सर चट्टानों के बीच में जाकर छुपा लिया. कुछ ही देर बाद बैल की पूंछ भीम के हाथ में थी.जिसके बाद बैल का सर धड़ से अलग होकर वहीं कुछ दूरी पर जाकर गिर पड़ा. जिसने शिवलिंग का रूप ले लिया. और कुछ समय पश्चात उस शिवलिंग से भगवान शिव प्रकट हुए. भगवान शिव ने अपने दर्शन देकर पांडवों को सभी पाप से मुक्त कर दिया. भगवान शिव को साक्षात अपने सामने देखकर सभी पांडवों ने महादेव को नमन किया जिसके बाद भोलेनाथ ने उन्हें स्वर्ग का मार्ग दिखाया और अंतर्ध्यान हो गए जिसके बाद पांडवों ने उस शिवलिंग की पूजा अर्चना की और आज वही शिवलिंग केदारनाथ धाम के नाम से जाना जाता है. आज भी इस घटना का प्रमाण केदारनाथ की शिवलिंग बैल के कूल्हे के रूप में मौजूद है,,,

दोस्तों क्योंकि पांडवों को स्वर्ग जाने का रास्ता स्वयं महादेव ने दिखाया था इसलिए हिंदू धर्म में केदार स्थल को मुक्ति स्थल के नाम से जाना जाता है और ऐसी मान्यता है कि यदि कोई मनुष्य अगर केदार दर्शन का संकल्प अपने मन में लेकर इस धाम की यात्रा के लिए निकलता है और बीच में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तो उसे इस पृथ्वी लोक में दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता.

ये तो आप जानते ही होंगे कि देवों के देव महादेव का प्रमुख निवास स्थान कैलाश पर्वत है. दुनिया के सभी पर्वतों में विशेष कैलाश पर्वत हिमालय पर्वत श्रृंग में स्थित है और यह हिंदू धर्म में भगवान शिव के प्रमुख आवास स्थल के रूप में प्रसिद्ध है. यही नहीं इस पर्वत से स्वर्ग तक जाने का रास्ता है ये भी कहा जाता है और यहीं से केंद्रित होकर भगवान शिव अपने भक्तों का ध्यान, आशीर्वाद और समर्थन करते हैं.  ये जगह अपने आप में दिव्य और ख़ास इसलिए भी है क्युकि यहां समय समय पर भोलेनाथ अपने भक्तों को अपने होने का एहसास दिलाते रहते हैं. इस धाम में रह कर भगवान् शिव की पूजा और सेवा करने वाले पुजारी को खुद एक बार साक्षात महादेव के दर्शन हुए. महादेव के साक्षात दर्शन करने वाले पुजारी का नाम है बागेश्व लिन्घ,,, ये घटना नेशनल फ्रंटियर मैगजीन में भी छप चुकी है. जिसके मुताबिक पुजारी द्वारा मंदिर के अंदर भगवान शिव के साक्षात दर्शन करने का उल्लेख है. आइए आपको हम उस पूरी घटना का उल्लेख स्वयं पुजारी बागेश्व लिन्घ से सुनवाते हैं.

दोस्तों बागेश्व जी के पास भोग मूर्ति थी जो अपने आप में काफी शक्तिशाली मानी जाती है क्युकि वो अभिमंत्रित होती है. ऐसे ही कई बार कलयुग में महादेव इस धाम में अपने होने का एहसास सच्चे भक्तों को करवाया है

साल के 6 महीने हिम से आच्छादित रहने वाले इस पवित्र धाम को लेकर एक और कथा प्रचलित है जिसके अनुसार हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे. उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान दिया. और अब आपको इस धाम से जुड़ी हम सबसे रोचक और महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं. क्या आपको पता है कि राधा और कृष्ण की लीलाओं के सबसे बड़े साक्षी स्वयं भोलेनाथ हैं. जी हाँ . यहां तक कि ब्रज क्षेत्र में भगवान केदारनाथ को परलक्षित करता हुआ एक महत्त्वपूर्ण स्थान भी है. माना जाता है कि द्वापर काल से ही ब्रज में भगवान केदारनाथ विराजमान हैं और आज तक अपने उसी दिव्य और विचित्र स्वरूप के दर्शनों से भक्तों को आशीर्वाद देते हैं.वहीं अब हम आपको उत्‍तराखंड के चमोली जिले में अलकनंदा नदी के पास स्थित बद्रीधाम से जुड़ा एक चौकाने वाली बात बताने वाले हैं

7वीं-9वीं सदी में बने इस मंदिर में एक मीटर लंबी शालिग्राम से बनी मूर्ति स्‍थापित है. मान्यता है कि इसे आदिगुरु शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में नारद कुंड से निकालकर स्थापित किया था. पर यहां पर आपको शंक बजाना सख्त मना है जिसके पीछे की धार्मिक मान्यता है कि जब माता लक्ष्मी बद्रीनाथ धाम में तुलसी रूप में ध्यान कर रही थीं.

तब उसी समय भगवान विष्णु ने शंखचूर्ण नाम के राक्षस का वध किया था. हिंदू धर्म में किसी भी शुभ काम को शुरू करने या समापन करने पर शंख बजाया जाता है, लेकिन भगवान विष्णु ने शंखचूर्ण के वध के बाद यह सोचकर शंख नहीं बजाया कि तुलसी रूप में ध्‍यान कर रहीं माता लक्ष्मी की एकाग्रता भंग हो सकती है. और यही वजह है कि आज भी इसी बात को ध्‍यान में रखते हुए बद्रीनाथ धाम में शंख नहीं बजाया जाता है.

उम्मीद करते हैं कि आपको केदारनाथ मंदिर से जुड़ी जानकारी और इसका पौराणिक इतिहास जानकर प्रसन्नता प्राप्त हुई होगी. इसी आग्रह है कि इसे अपने प्रिय जनों और सगे संबंधियों तक ज्यादा से ज्यादा पहुंचाने का प्रयत्न करें.

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